काव्य संग्रह - मन वातायन
कवयित्री - डॉ. कौशल्या गुप्ता
प्रकाशक - पाँखी प्रकाशन
मूल्य - रू. 160/-
कविता, कवि और कवि का जीवन-वृत्त यूँ तो ये अलग-अलग बिन्दु प्रतीत होते हैं, परन्तु जीवन के वृह्त्तर आयामों में इन तीनों बिन्दुओं को परखने पर यह मानवीय सभ्यताओं की यात्रा में जीवन के एक ही घेरे में चमकते दिखाई देते हैं, अर्थात एक कवि की कविता, उसका व्यक्तित्व और उसका जीवन-वृत्त बाहर से भले ही अलग-अलग दिखते हों पर कहीं न कहीं रचनात्मक धरातल पर यह तीनों ही इस तरह आपस में घुले-मिले होते हैं कि न तो इन्हें बिलगाना ही संभव होता है और न ही एक के बिना दूसरे को समझ पाना। कौशल्या जी की कविताओं में भी इसी तरह उनके कवि मन की उथल-पुथल, उनके एक तटस्थ दृष्टा के समान स्थिर व्यक्तित्व और उतार-चढ़ावों से भरे जीवन के अनेकों पहलुओं की रलमल उपस्थिती दिखाई देती है। उन्हीं की एक कविता की पंक्तियाँ हैं –
कविता अनुवाद है
मन की बोली का
मन के मूल का
उनका जीवन, शिक्षा, शोध और विभिन्न देशों की संस्कृतियों को देखता, स्पर्श करता और कहीं-कहीं उनमें डूबता- उतराता आगे बढ़ता रहा है। कभी, कहीं पल दो पल को किनारे लगा भी तो वक़्त के थपेड़ों ने फिर उसे नई दिशाओं में धकेल दिया। कई बार उन्होंने स्वंय भी, जिज्ञासा बस नई दिशाओं को जानने, समझने, शोध करने का रास्ता चुना। क्योंकि उनके मन में एक कवि की व्यग्रता थी। एक ऐसी बेचैनी थी जो हमेशा ज़िंदगी के समन्दर की थाह लेने को आकुल रहती है। एक जगह वह लिखती हैं-
बूँद बिली
ज़रा सागर की
थाह तो ले लूँ
कितना गहरा है
……और कूद पड़ी।
और यह सागर की थाह लेने की मनसा अनायास या अकारण ही नहीं उपजी, यह कवि के साथ ही पैदा होती है। यह अच्छे-बुरे समय में कवि के साथ-साथ चलती है। कवि मन की यह मनसा ही कवि को वह सब दिखाती है, जो और लोगों की आँखों के सामने होते हुए भी वे उसे नहीं देख पाते। कवि उन ओझल चीज़ों को बोता, काटता और बरतता है, जो सामने होकर भी नहीं हैं, जिन्हें उनके आस-पास बैठे लोग सिर्फ़ कविताओं की खिड़कियों से ही देख पाते हैं। कवि समाज को मात्र कवितायें नहीं देता, वह समाज को ऐसा चश्मा देता है, जिस से समाज जीवन की कई पर्तों के नीचे छुपी दुनिया को बिल्कुल साफ़-साफ़ देख पाता है। वह देख पाता है कि इस विराट अराजकता के बीच जब कोई एक पल स्थिर हो जाता है, तो वह ठीक-ठीक कैसा दिखता है। कविता से हम उस समय को देखते ही नहीं बल्कि उसे छू भी पाते हैं। ऐसी ही एक स्थिर क्षण में कौशल्या जी ने एक जगह लिखा है –
काल टटोलती
शिशु की
नन्हीं उंगलियाँ।
कविता में हज़ारों वर्षों का सफ़र पलों में संभव है। कवि के साथ हम क्षण भर में एक युग से दूसरे युग में तिर जाते हैं। पलकों के झपकने या तितलियों के परों के काँपने की ध्वनियों को भी सुन पाते हैं। कविता ओझल मनोभावों का मनोविज्ञान है। या कहें कि बिना बहे आँसुओं के भाप बन जाने की क्रिया को, काग़ज़ पर उतार लेना ही कविता है। और ऐसा कौशल्या जी की कविताओं में बार-बार होता है।
बीज बोकर
छाया बो दी
गन्ध बो दी
पर जीवन में कवि का कवि बने रह पाना। अपने भीतर के कवि के साथ रोज़मर्रा की ज़िंदगी जी पाना सरल नहीं होता। यह कवि के जीवन को चुनौतियों से भर देता है। उसके भीतर और बाहर की दुनिया के द्वन्द्व उसे हमेशा बेचैन रखते हैं और जो इस द्वन्द्व के साथ रहना सीख जाता है, वही कह पाता है –
कैकटस का बाग़
तितलियों की सैरगाह नहीं
वह स्वंय तो चुनौतियों का सामना करता ही है, इसके साथ-साथ समय को चेताता हुआ आगे बढ़ता है और कविता के सदा जीवित एवं स्वतंत्र रहने की घोषणा करता है –
सुन सकते हो
गीत
बन्दी नहीं बना सकते।
कौशल्या जी की कविताएँ बहुत कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाती हैं। वह कई स्थानों पर पाठक की भी परीक्षा लेती हैं। यह सरसरी तौर पर जल्दी से पढ़ ली जाने वाली कविताएँ नहीं हैं। यह पढ़ कर तसल्ली से महसूस की जा सकने वाली कविताएँ हैं। अपनी कविताओं में ही एक जगह वह इस ओर इशारा भी करती हैं –
चिड़िया चुप हो गई
कोयल ने मुंह पर उंगली रख ली
कौआ पूछने लगा
कहाँ है मौन?
सचमुच कौशल्या जी के इस संग्रह की कविताएँ अद्भुत बिम्बों के माध्यमों से कई रहस्यमय प्रतीकों तक पहुँचती हैं।
कुहरे में लिपटा
चाँद सा दिखता
ताल के जल में
नहाता सूरज
काँप रहा था
सर्दी से
लहरों के संग-संग्।
‘आलोक स्पर्श’ और ‘क्षितिज का सीमान्त’ के बाद यह डॉ कौशल्या गुप्ता जी का तीसरा काव्य संग्रह है। उनकी काव्य यात्रा पिछले पाँच दशकों से सतत प्रवाहमय है। उनके लेख, शोध तथा कविताएँ समय-समय पर देश भर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। उनकी कविताओं में एक ऐसी ताज़गी है जो उन्हें हमेशा नया बनाए रखती है। हमारे लिए वह कभी न चुकने वाली अमुल्य निधि है। कितनी ही बार पढ़ी जाए कोई किताब, उसके शब्दों के अर्थ समाप्त नहीं होते।
कौशल्या जी की कविताएँ दूर-दूर पहुँचे। लोगों के मन को छुएँ, उस में बसें और नित नए अर्थ उद्घाटित करें, ऐसी शुभकामनाओं के साथ।
- विवेक मिश्र -