कृति- कोई यूँ ही नहीं चुभता
विधा- कविता
कवि- चिराग जैन
प्रकाशक- शिल्पायन
"कोई यूँ ही नहीं चुभता" में चिराग जैन की कुछ एक रचनाएँ मन की गहराइयों में छुपकर बैठी संवेदनाओं तक पहुँचकर उस फाँस की तरह चुभती हैं, जो दर्द तो करती हैं पर आँखों से दिखती नहीं-
बच्चे रोज़ शाम
खेलते हैं इक खेल
जिसमें सीटी नहीं बजाती है रेल
और न ही होता है
छुपन-छुपाई का राज़
उसमें होती है
'फ़तह्पुरी- एक सवारी की आवाज़'
रिक्शावाला
ऎसी ही एक कविता है -'परिवर्तन'।
पिछले कुछ वर्षों से
बच नहीं पाती अब
वह चिल्लड़
जिसे खनका कर
चिज्जी खरीदते थे पापा
……………
ख़र्च हो गयी है
सारी रेज़गारी
और गुम हो गया है
वक़्त का वह हिन्डोला
जिसमें बैठ राह तकते थे बच्चे
दफ़्तर से लौटते पापा की
चिराग की कवितायें पढ़कर मुझे कहीं मोंगतेवीदियो के लेखक-पत्रकार ऐदू आर्दो गलियानो के एक निबन्ध की वे पंक्तियां याद आती हैं, जिनमें गलियानो कहते हैं- “कुछ बच्चे चीटियों की बांबियों के छेदों में जलती हुई माचिस की तीली डाल देते हैं। और चीटियों को जला देते हैं। यह उनके लिये एक खेल है, क्योंकि वे नहीं जानते कि ज़िन्दगी और मौत को अलग करने वाली रेखा कितनी बारीक़ होती है। लेकिन उन्हीं में से एक लड़का जो चीटियों को बड़े ध्यान से देख रहा होता है, वह पाता है कि चीटियां मरते समय जोड़े बना लेती हैं और एक के ऊपर एक जमा हो जाती हैं।”
शायद जो मरती हुई चीटियों को जोड़े बनाते हुए देख पाता है वह बड़ा होकर कवि हो जाता है। ऐसी ही मौलिकता इन पंक्तियों में दिखती हैं-
गुड्डी के पापा
लन्च में टिफ़िन खोलते समय
मूंद लेते हैं आँखों को
क्योंकि देख नहीं पाते हैं
रोटियों से झाँकते
तवे के सुराखों को
भूख जैसी चीज़ को भी ऐसी दृष्टि से देख पाते हैं चिराग इन पंक्तियों में-
पेट को जब भूख लगती है
तो अक़्सर
पाँव सबके
घर से बाहर आ निकलते हैं
तितलियाँ लड़ती हैं अक़्सर आंधियों से
चीटियाँ चलती हैं क़तारों में
निकलकर बांबियों से
परिंदे भी दानों की ख़ातिर खोलते हैं पर
गीत-ग़ज़ल-नज़्म और कविता के इस संकलन में एक ऐसे युवा रचनाकार का संसार सामने आता है जो बाँहें फैलाये उस मानवीय संवेदना को अंगीकार कर रहा है, जो आज के मशीनी युग में भी किसी हृदय में कविता के अवतरण का कारण है-
इक दफ़ा पलकों को अश्कों में भिगो लेते हैं हम
और फिर होंठों पे इक मुस्कान बो लेते हैं हम
गीत गाते वक़्त रुंध ना जाये स्वर इसके लिए
गीत लिखते वक़्त ही जी भर के रो लेते हैं हम
मैं हमेशा से ही कविता के विषय में कहता आया हूँ कि कविता लिखने का कोई यांत्रिक तरीका आज तक ईजाद नहीं हुआ। और न ही उसकी आवश्यकता है। असली कविता को किसी अय्यारी की ज़रूरत नहीं पड़ती, वह लोगों की आँखों में कहीं बची रह गयी थोड़ी सी नमी से अपना रास्ता बनाती हुई दिलों में उतर जाती है। चिराग की रचनायें ऐसे ही संवेदनशील रचनाकार की रचनाएँ हैं, जो उस नमी को ढूंढती, पहचानती और उसके रास्ते दिलों में उतरती चलती हैं।
जहाँ दरकार हो दो घूँट मीठे साफ़ पानी की
वहाँ पाकर समंदर आदमी मायूस होता है
………
ढले जो शाम तो गलियों में खेलने निकलें
वहाँ पाकर समंदर आदमी मायूस होता है
………
ढले जो शाम तो गलियों में खेलने निकलें
बड़े हसीन थे वो इंतज़ार बचपन के
………
फिर से कल रात मेरी मुफलिसी के खंज़र ने
………
फिर से कल रात मेरी मुफलिसी के खंज़र ने
मेरे बच्चों की तमन्नाओं का पर काट दिया
………
सच के मंतर से सियासत का ज़हर काट दिया
………
सच के मंतर से सियासत का ज़हर काट दिया
हाँ ज़रा रास्ता मुश्किल था मगर काट दिया
ये वो कुछ एक शे’र हैं जो चिराग को किताबों से निकाल कर आम आदमी के होठों तक ले आने की ताक़त रखते हैं। चिराग अभी युवा हैं, बहुत कुछ लिखना बाक़ी है। वे अपने ही रचे प्रतिमानों से आगे बढ़ें, ऐसी ईच्छा के साथ……!
-विवेक मिश्रा
-विवेक मिश्रा