Jul 21, 2010

शब्दों का कोहरा - वीरभद्र कार्कीढोली




कविता संग्रह - शब्दों का कोहरा
कवि - वीरभद्र कार्कीढोली
मूल नेपाली से अनुवाद - खडगराज गिरी
प्रकाशक - दोभान प्रकाशन, सिच्छे गान्तोक,
'शब्दों का कोहरा' वीरभद्र कार्कीढोली की मूलतः नेपाली में लिखी गई कविताओं के हिन्दी अनुवादों का संग्रह है। वीरभद्र एक ऐसे कवि हैं जो नेपाली, हिन्दी, अंग्रेज़ी और असमी में एक साथ लिखते हैं। उनके अभी तक सात कविता संग्रह एवं एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।
कार्कीढोली के लिए ज़िंदगी और कविता दो अलग-अलग चीज़ें नहीं हैं। उन्हीं के शब्दों में कहें तो "ज़िंदगी से अलग हम कोई दूसरी यात्रा के यात्री नहीं हैं। दरअसल हो ही नहीं सकते। ज़िंदगी से अलग कोई ज़िंदगी नहीं है। वस्तुतः ज़िंदगी के ही ईर्द-गिर्द ज़िंदगी की तलाश कर रहे हैं हम। कोई हँसता नहीं है ख़ुशी से, आनन्द से। हँसने वाले सभी रो रहे हैं। अन्दर ही अन्दर अपनी अन्तर पीड़ा से।"
कार्कीढोली बदलाव के कवि हैं। ज़िंदगी में और कविता में, हर समय कुछ नया बोना चाहते हैं। वर्जनाओं से, रूढ़ियों से मुक्त होने की एक कोशिश करना चाहते हैं -
कई दिन हुए
एक ही भजन दोहरा रहे हैं लोग-
इस शहर के प्रसिद्ध मन्दिर में,
भीड़ चाहती है नए भजन सुनना
पर मन चाहा भजन सुने बिना ही
घनी रात्रि में
दिया बुझा कर
बेचारे पुजारी ने आत्मह्त्या कर ली
प्रभु के मन्दिर में ही।
कार्कीढोली की कविताएँ सतत संघर्षों और नई यात्राओं की कविताएँ हैं। एक ऐसे संघर्ष की कविताएँ जो देश, काल, पात्र बदलने पर भी समाप्त नहीं होता। बस मुखौटे बदलता है।
मैं तो हिमालय देखने आया था
तुम्हारे भीतर का
भरा हुआ और पिघला हुआ
देखूँगा सोचा था
पर ऊँचाईयाँ आँकने
नहीं आया था मैं………
बहुत ऊँचाई तक चला हूँ
और अभी उतना ही चलना है…
……पर पुनः मैं वही ग़लती दोहराने
उसी जगह आ पहुँचा।
फिर उसी जगह आ पहुँचा !!
बाज़ारवाद की आँधी में ध्वस्त होती मान्यताओं के बीच लगातार शोषन का शिकार होते आदमियों की भीड़ में से ही एक कवि भी है जो डर रहा है अपने लिए, अपने जैसे और लोगों के लिए और डर रहा है ध्वस्त होती आस्थाओं और जीवन मूल्यों के लिए -
पक्षी अब तक नहीं लौटे
एक-एक कर गिर रहें हैं पत्ते
हवा भी नहीं बह रही है ख़ूब!
गिरने को है वह पहाड़!
गिर सकता है : किसी रात, किसी दिन
या नहीं तो शाम को
खड़ी थी वहीं पर मेरी भी आस्थाएं!
वीरभद्र कार्कीढोली की कविताओं में जीवन के नैराश्य का चरम है। जीवन के दुखों की चमक है और सन्नाटे में भारी-भरकम पहाड़ों के नीचे दबी कई अनसुनी चीख़ें हैं, जिन्हें ध्यान से जोड़कर सुनने पर एक ऐसी कविता बनती है जो समूची मानव जाती के दर्द का, उसकी पीड़ा का, उसके आर्तनाद का प्रतिनिधित्व करती है। उनकी कविताएँ समस्याओं के उत्तर नहीं हैं, बल्कि सदियों से अनुत्तरित प्रश्नों की प्रतिध्वनियाँ हैं। उन्हें सुनकर अगर कोई जवाब आपको सूझे तो कवि को लिखियेगा।
वीरभद्र कार्कीढोली की कविताएँ शीघ्र ही आप 'काव्यान्चल' पर पढ़ सकेंगे। वह अपने परिवार के साथ गैंगटॉक, सिक्किम में रहते हैं।
- विवेक मिश्र -

Jul 7, 2010

'सरस्वती सुमन' - दोहा विशेषांक



'सरस्वती सुमन' त्रैमासिक पत्रिका का दोहा विशेषांक दोहों को उनकी पूरी समग्रता के साथ पुनः स्थापित करने का एक प्रयास है। पत्रिका के संपादक आनंद सुमन सिंह तथा अतिथि संपादक अशोक 'अंजुम' हैं। पत्रिका में हिन्दी काव्यधारा में दोहों का इतिहास, उनके प्रकार, उनका महत्व एवं उनके गुणों को उजागर करते लेख एवं साक्षात्कार हैं, जिसमें अतिथि संपादक अशोक 'अंजुम' की वरिष्ठ कवि गोपाल दास नीरज एवं सहित्यकार देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' से की बात-चीत, दोहों के विषय में चर्चा को नए आयाम देती है। दोहों के प्रकारों पर प्रकाश डालता डॉ राम स्नेही लाल शर्मा 'यायावर' का लेख नए दोहाकारों के लिए विशेषकर पठनीय एवं संग्रहणीय है। दोहों में मात्राओं के महत्व को बताता चंद्रपाल शर्मा का लेख भी शोधपरक है।

विशेषांक में संत दादू के दोहों से लेकर नई पीढ़ी के लगभग 125 दोहाकारों को शामिल किया गया है। इससे स्वतः ही दोहों की यात्रा एवं विकास का भान हो जाता है।

यूँ तो विशेषांक में वर्तमान समय के रचनाकारों को ही प्रमुखता से छापा गया है, परन्तु दोहों की विरासत की चर्चा हो और कोई संत कबीर को नज़र अंदाज़ करे, यह बात खलती ही नहीं बल्कि सीधे-सीधे दोहों की चर्चा में कबीर की अनदेखी किसी भी तरह गले नहीं उतरती। शायद ही कोई रचनाकार यह भूल सकता हो कि हिन्दी कविता के इतिहास में कबीर और दोहे एक-दूसरे के पर्याय हैं।

विशेषांक के मुख्य पृष्ठ पर छपा चित्र विशेषांक की सामग्री के कतई अनुकूल नहीं है, जबकी भीतर के पृष्ठों पर छपे रेखाचित्र जो अतिथी संपादक अशोक 'अंजुम' के हैं, बहुत प्रभावशाली एवं सामग्री के अनुकूल हैं। अंक में पिछले दशक में छपी महत्वपूर्ण सतसईयों की भी अनदेखी की गई है, जिससे धर्म प्रकाश गुप्त जैसे बड़े दोहाकार अंक से बाहर हैं, पूर्वी उत्तर प्रदेश के कवि 'त्रीफ़ला' जो दोहों और सतसईयों के लिए जाने जाते हैं, उनकी सुध भी नहीं ली गई है। उसका कारण अधिकांश रचनाकारों का चुनाव मंचीय कवियों में से ही किया गया है, जिससे अधिकांश दोहों में विषयों की पुनरावृत्ति का दोष तो आया ही है, साथ ही कुछेक दोहे बहुत हल्के, चलताऊ और अर्थों में बहुत उथले प्रतीत होते हैं। विशेषांक के अंत में दिए दोहे से ही यदि यह बात करें तो यूँ होगी -

सब कुछ उल्टौ हो गयौ, भयौ बुरौ सब फेर ।

तुलसी, सूर, कबीर सब देख रहे अंधेर ।

दोहों को अपनी तुकों, मात्राओं और लय के कारण ही नहीं बल्कि अपने भीतर छुपे गूढ़ दर्शन और जनहित के लिए दिए गए संदेशों और शिक्षाओं के लिए भी प्रमुखता से जाना जाता है। आज दोहों का प्रयोग हल्के, चलताऊ जुमलों या नारों की तरह तालियाँ बटोरने के लिए हो रहा है। दोहा दरअसल दर्शन को समेटकर उसे संक्षिप्त कर जन साधारण तक पहुँचाने के लिए लिखा जाता था, इसकी भाषा लोक भाषा होती थी पर इसके अर्थों की कई पर्तें होती थीं। दोहों के गुणों की इस कसौटी पर कुछ ही दोहाकार आज खरे उतरते हैं। विशेषांक के कुछ दोहे -

इसक अलद की जात है, इसक अलह का अंग ।

इसक अलह औजूद है, इसक अलद का रंग ॥ -संत दादू-

अभी नहाया है छुरा, लगी सड़क पर भीड़ ।

घबरा कर दुखने लगी, बड़े-बड़ों की रीढ़ ॥

राजपथों पर खो गया, जीवन का भूगोल ।

ख़ाका सब पूरा हुआ, ख़ास बात है गोल ॥ -म ना नरहरि-

देख-देख पर्यावरण, बहा रहा है नीर ।

ताजमहल किससे कहे, अपने मन की पीर ॥

आसमान को छू रहे, आलीशान मकान ।

तरस रहे हैं धूप को, घर के रोशनदान ॥ - अंसार कंबरी-

बेशक मुझको तौल तू, कहाँ मुझे इन्कार ।

पहले अपने बाट तो जाँच-परख ले यार ॥ -हस्तीमल हस्ती-

अग्निपरीक्षा भी कहाँ जोड़ सकी विश्वास ।

युग बीते, बीता नहीं, सीता का वनवास ॥ -सरिता शर्मा-

अर्थहीन कुछ ने कहा, कुछ ने अर्थातीत ।

अव्याख्येय रहस्य सा जीवन हुआ व्यतीत ॥ -शिवओम अंबर-

पत्रिका छः वर्षों में चवालीस अंक निकाल चुकी है। लगभग पौने दो सौ पृष्ठों का दोहों पर केन्द्रित यह अंक पाठकों को कई सिद्ध दोहाकारों की रचनाओं से रूबरू होने का मौक़ा देता है। नए दोहाकारों को सीखने के लिए अंक में पर्याप्त सामग्री है।

अंक - 'सारस्वतम', 1-छिब्बर मार्ग, देहरादून - 248001 से मंगाया जा सकता है।

- विवेक मिश्र -