Jul 1, 2009

‘वसंत तुम कहाँ हो’ – स्नेह सुधा नवल



कविता संग्रह - ‘वसंत तुम कहाँ हो’
कवियित्रि - स्नेह सुधा नवल
प्रकाशक - अमृत प्रकाशन
मूल्य - रु १००/-



स्नेह सुधा नवल का काव्य संग्रह ‘वसंत तुम कहाँ हो’ की कविताएँ एक विस्तृत जीवन में समेटे गए गहन एंव नितान्त निजी अनुभवों, स्मृतियों एंव सघर्षों की कविताएँ हैं। इन कविताओं का संसार स्त्री मन के उन सघर्षों की ओर इशारा करता है, जहाँ शिक्षित, सुसंस्कृत मध्यम वर्ग की महिलाओं के जीवन में बाहर से सबकुछ सामान्य, ख़ुशहाल एंव पूर्ण दिखता है, परन्तु इस रूपहले आवरण के पीछे बहुत कुछ अप्रिय, अशोभनीय एंव असामान्य छुपा रहता है जिसे स्वंय जानने एंव अनुभव करने के बाद भी उसे ढक कर, ऊपर से मुस्कुराते रहना ही नारी जीवन की विवशता होती है।
तुम पुष्प हो माना/अपने मकरन्द में मस्त………………
पर क्यों भूल गए तुम/कि तुम फूल हो
तो मैं काँटा नहीं/तुम्हारी ख़ुशबू हूँ
जिसे तुमने अपने संग/कभी बाँटा नहीं
_____________
उगाओ जाओ तुम काँटे
मैँ फूल ही उगाऊँगी ……………
मैं समेट कर सब अपनी अंजुरी से
भर लूँगी अपना आँचल ……………
…… यही तो दिया है तुमने मन से ……

सब कुछ पा कर भी जहाँ एक कभी न भरने वाली रिक्तता, चँहु ओर फैले कोलाहल के बीच एक कभी न टूटने वाले सन्नाटे से घिरी मनोदशा में सबके बीच खड़ी होकर सबको बहुत दूर से देखती हुई स्नेह सुधा की कवियित्री जब अतीत की ओर हाथ बढ़ाती है तो मन में अभी तक संजोकर रखी स्मृतियों से कुछ ऐसे पल झरने लगते हैं, जो बहुत सुखद हैं पर आज की आपा-धापी में उन्हें पुनः पाना संभव नहीं बल्कि अब मात्र उनकी कल्पना ही की जा सकती है –
उन खण्डहरों की याद
अभी भी ताज़ा बनी है
आज भी जब याद
उस दिन की आती है
मैं अपने ही एक हाथ से
दूसरे को दबा
तुम्हारी कल्पना किया करती हूँ।

स्नेह सुधा कि कविताओं में नारी संघर्ष सतत झलकता है पर वह पुरूष के विरूद्ध नहीं खड़ा है, वह नारी के आगे बढ़ने को, उसके पुरूष हो जाने या सत्ता पलट करने के संघर्ष के रूप में सामने नहीं आता बल्कि वह नारी के अपने में निहित पूरी शक्तियों के साथ, अपने संस्कारों के साथ सामाजिक, पारिवारिक और व्यैक्तिक स्तर पर मज़बूती से खड़े रहने का पक्षधर है।
नरेन्द्र मोहन उनकी कविताओं के बारे में लिखते हैं कि इन कविताओं में बिना किसी पूर्वाग्रह के अन्तर्प्रवेश करना चाहिए। संस्कार सम्पन्न, संघर्षशील नारी के पक्ष से लिखी गई ये कविताएँ विभिन्न परम्परागत प्रतीकों के माध्यम से स्त्री-पुरूष के सम्बन्धों का कथन करती हैं। वे नए ज़माने में नारी अस्मिता के नए रूपों की टोह लेती हैं। ये कविताएँ बुद्धी और भावना के द्वन्द में फँसी नारी को, उस ख़ुश्बू की ओर ले जाती हैं, जिसे पुरूष ने अपने संग कभी नहीं बाँटा।
इस संग्रह की कविताएँ अतीत की झाँकियाँ दिखाती, पीछे छूटे पारिवारिक, सामाजिक मूल्यों को, स्मृतियों को समेटती, संजोती और उन्हें संवेदना के धागे में पिरोती चलती हैं। परन्तु कहीं-कहीं भावातिरेक में वे अपनी निजता के दायरे में सिमटकर किसी पुरानी डायरी के वो अधूरे पन्ने बनकर उभरती हैं, जहाँ उन्हें एक निजी अनुभव से निकल कविता बनने का सफ़र अभी करना बाक़ी है। संकलन में अलग-अलग समय पर लिखी गई कविताएँ हैं, जिनके चुनाव करने में थोड़ा और ध्यान दिया जा सकता था, क्योंकि यह संग्रह उनकी समस्त कविताओं का संकलन नहीं है। पर जैसा कि संग्रह की भूमिका में नरेन्द्र मोहन लिखते हैं कि इस संग्रह की कविताओं को मानों/प्रतिमानों के आग्रहों से मुक्त होकर देखा-पढ़ा जाना चाहिये और सीधे-सीधे इन कविताओं में संस्कार, स्मृति और संवेदना की जो त्रिधारा प्रवाहित है, उसका आकलन किया जाना चाहिए।
यह सही है कि उसी प्रकाश में ‘वसंत तुम कहाँ हो’ को पढ़ा जाए पर स्नेह सुधा जिस पृष्ठभूमि से हैं, उनका जो कार्यक्षेत्र है और उस सबके साथ हरीश नवल जी जैसे सूक्ष्म एंव मौलिक दृष्टि रखने वाले साहित्यकार के संग एंव सानिध्य से बड़ी उम्मीदें बँधती है, और एक आशा जमती है कि ‘वसंत तुम कहाँ हो’ एक प्रश्न नहीं एक खोज बनेगा और जल्दी ही स्नेह सुधा नवल वसंत को खोजकर अपनी अँजुरी में भरकर अपने अगले संग्रह में लाएँगी।
- विवेक मिश्र -

स्नेह सुधा नवल दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलत राम कालेज के हिंदी विभाग में वरिष्ठ एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। उन्हें कबीर सेवा सम्मान सहित कई सम्मानों एंव पुरस्कारों से विभुषित किया जा चुका है।

Jun 28, 2009

मिथिहास को इतिहास में बदलता एक सच्चा दस्तावेज़ है संजीव जी का उपन्यास ‘आकाश चम्पा’

उपन्यास – आकाश चम्पा
लेखक – संजीव
प्रकाशक – रेमाधव पब्लिकेशन्स प्राइवेट लिमिटेड
मूल्य – रू 240/-



दुनिया के पवित्रतम शब्द हैं “मैं ग़लत था”
यूँ तो किसी के मान लेने से ही कि वह ग़लत था, उसकी भूल सुधार की इच्छा का बीज पड़ जाता है। परन्तु इतिहास में जाकर भूलों को ढूँढना, उन्हें सुधारना एक ज़रूरी एंव जोख़िम भरा काम है पर उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है इतिहास से बाहर वर्तमान में हो रही भूलों को न केवल समझना बल्कि आगे बढ़कर उन्हें रोकना और उसके लिये बड़े से बड़ा जोख़िम उठाना। इन्हीं दो किनारों के बीच बहती है आकाश चम्पा के नायक मोतीलाल के जीवन की नदी।
आकाश चम्पा का नायक मिथिहास नहीं इतिहास को खोजना चाहता है, वह रियलटी नहीं एक्ज़ैक्टिट्यूड को थाम कर सत्य का पुनरावेष्ण करना चाहता है और उसकी पुनर्स्थापना भी। परन्तु इतिहास या कहें सच्चा इतिहास कितना कारगर होता है वर्तमान जीवन को समझने, उसकी चुनौतियों का सामना करने में, जबकि नित नया इतिहास बन रहा है और उस में भी पल-पल शताब्दियों पुराने इतिहास से भी बड़ी और भूलें हो रहीं हैं। आज हिंसा और विध्वंस के लिये मानवता विरोधी ताक़तों के हाथ में जो हथियार हैं, वह इतिहास में प्रयुक्त हथियारों से हज़ारों गुना ज़्यादा तबाही फैलाने वाले हैं। इसी अन्तर्द्वन्द से जूझते मोतीलाल समय की नदी में बहते हैं – “नदिया एक घाट बहुतेरा……” से रास्ते में कई घाट, कई पड़ाव आते हैं और हर घाट से नदी अलग दिखती है, और वह उस घाट पर खड़े लोगों के लिये रियलटी भी है पर उस पड़ाव की, उस घाट की यथा तथ्य स्थिति (एक्ज़ैक्टिट्यूड) क्या है? यही देखने-समझने के लिये यह नदी कहीं-कहीं रूक जाती है और इसी के साथ घूमती पृथ्वी, चाँद-सितारे सब ठिठक जाते हैं और फिर इतिहास या कहें मिथिहास से निकल-निकल कर पात्र अपने असली चेहरे दिखाते हैं जो चौंका देने वाले हैं, वहाँ ऐसे भी कई चेहरे मिलते हैं जिन्हें मिथिहास लिखने वालों ने नज़र अन्दाज़ कर दिया या, यह सोच कर दफ़्न कर दिया कि शायद अब कोई समय के पन्ने फिर नहीं पलटेगा और यह चेहरे झूठे इतिहास के मलबे में दब कर दम तोड़ देगें। परन्तु आकाश चम्पा में इतिहास फिर से जी उठा और उसी के साथ जी उठी हैं वे सभी कराहें, वेदनाएँ जो शताब्दियों से मिथिहास के मलबे के नीचे दबी छ्टपटाती रहीं और तमाम इतिहासकार उसी मलबे पर विशाल अट्टालिकाएँ खड़ी करते रहे, जो संजीव जी के इस उपन्यास में भरभरा कर गिरती हैं।
इन इतिहास की भूलों को सुधारने में मोतीलल इतने खो जाते हैं कि इतिहास से बाहर घटने वाले वर्तमान पर उसका ध्यान ही नहीं जाता, जो हर पल इतिहास बन रहा है, और जब ध्यान जाता है तब बहुत देर हो चुकि होती है, पर फिर भी मोतीलाल इतिहास से बाहर निकलते है। अन्याय के ख़िलाफ़ खड़े होते हैं, संघर्ष में शामिल होते हैं और फिर ख़ुद इतिहास बन जाते हैं। आकाश चम्पा एक साधारण सत्ता एंव समाज में लगभग नगण्य सी हैसियत रखने वाले एक आम आदमी के असाधारण संघर्ष की कहानी है। और यह संघर्ष भूत-वर्तमान और भविष्य के लिये एक साथ चलता है। और इस में व्यैक्तिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक संघर्षों के साथ इतिहास के प्रेतों से भी निरन्तर भीषण संग्राम होता है, जिस में अन्ततः मोतीलाल की विजय होती है परन्तु वह विजय व्यैक्तिक नहीं है और न ही वह उसके संघर्ष का समापन ही है, बल्कि वह बुझते दिए की भभकती लौ की आवाज़ है, जो बुझते-बुझते भी अन्धेरे से लड़ना सिखा जाती है।
“यह उदय की लाली भी है और अंत की भी।” यह भूत, भविष्य और वर्तमान को एक साथ संदेश देती है।
“बुलबुल तरू की फुगनी पर से संदेश सुनाती यौवन का।” और इस संदेश के साथ आकाश चम्पा असली आकाश चम्पा की तरह यह उम्मीद बँधा जाती है कि जिन डालियों पर फूल नहीं आए, उन पर फिर बहार आएगी, फिर फूल लगेंगे।
पहाड़ियों को पहाड़ से उतारा जाएगा, भुला दी गई जातियों को ढूँढ कर उनके शौर्य की, उनके संघर्ष की गाथा फिर से लिखी जाएगी। इतिहास की स्लेट से सब कुछ मिटा कर फिर इतिहास लिखा जाएगा।

-‘विवेक मिश्र’-

संजीव समकालीन हिंदी कथा-साहित्य में प्रथम पांक्तेय हस्ताक्षर हैं।
कथा क्रम, इंदु शर्मा (लंदन), भिखारी ठाकुर एंव पहल जैसे महत्वपूर्ण सम्मानों से विभूषित हैं। वर्तमान में ‘हंस’ के कार्यकारी संपादक हैं।

Apr 27, 2009

कविता संग्रह 'तुम ही कोई नाम दो' - नमिता राकेश



नारी मन की संवेदनाओं की सशक्त अभिव्यक्ति होते हुए भी पूर्णरूपेण नारी विमर्श की कविताएँ नहीं हैं, नमिता राकेश के कविता संग्रह 'तुम ही कोई नाम दो' में।

नमिता राकेश के भीतर की कवियित्री पहले एक इंसान है फिर एक नारी, इससे उनकी कविताओं में अपने समय को देखने की एक समग्र दृष्टि एवं विषय वैविध्य दिखाई देता है, पर अपने इस गुण के साथ अपने भाव की अभिव्यक्ति में वह पूरी तरह एक नारी मन की कोमलता से काम लेती हैं, जो उनकी कविताओं को उनके समय की कवियित्रियों से अलग खड़ा करती है।
कुछ नहीं पाती
सिवाय आत्म संतुष्टि के
क्या मोमबत्ती में
नहीं हैं लक्षण
एक माँ होने के
इस संग्रह की कविताएँ नारी के पक्ष में खड़ी होकर पुरूष एवं पुरुष प्रधान समाज के ख़िलाफ़ झंडा नहीं उठातीं, बल्कि स्त्री एवं के पुरुष दोनों के अस्तित्व को उनके गुण-दोषों के साथ स्वीकार करती हैं एवं साथ-साथ चलकर अपने समय के समाज का चेहरा ही नहीं उसकी आत्मा भी बदलना चाहती हैं।
दिन भर की मेहनत के बाद
अभी-अभी सोया है
धरती के बिछौने पर
आकाश को लपेटे हुए
वह देखो वहाँ सोया है
मेरे देश का कर्णधार
बंद कर दो यह कोलाहल
थोड़ा उसे सोने दो
उसे काम करना है
संवारना है वर्तमान
॰॰॰॰॰॰और भविष्य देश का।

नमिता अपने सफ़र में अकेली नहीं हैं, वह अपने घर, परिवार और समाज के साथ चलती हैं, पर इस सफ़र में वह अपने हमसफ़र से सवाल करना नहीं भूलतीं।

समय की रेत पर
तुम्हारे पद चिन्हों के पीछे-पीछे
मैं भी चलती चली गई
चुपचाप, आँखे मूंदे हुए॰॰॰॰॰
तुम्हारी मेरे प्रति बेफ़िक्री
ख़ैर जो भी हो
तुम मेरे एक सवाल का जवाब दो
क्या तुम भी चल सकते हो
मेरे पद चिन्हों पर?
मेरे पीछे?
चुपचाप आँखे मूंदे?

नमिता ने प्रेम कविताएँ भी लिखी हैं पर वे भी बहुत सजग एव सधी हुई अभिव्यक्ति के साथ आगे बढ़ती हैं। उनमें अतिश्योक्तिपूर्ण भावाभिव्यक्तियाँ नहीं हैं, वह आज की उस नारी का प्रेम है जो अपने नारीत्व से एवं उसकी शक्ति से परिचित है।
मैं एक समुद्र हूँ
न जाने अपने में
क्या-क्या छिपाए
मोती, सीप, चट्टानें, पत्थर
तुम चाहो तो गोताखोर बन सकते हो
उतर कर उसकी गहराई में
ढूँढ सकते हो मोती
पा सकते हो बहुत कुछ
या किनारे से ही
फेंक सकते हो पत्थर
और खा सकते हो छींटे ॰॰॰॰ खारे पानी के

नमिता की कविताओं में सच्चे मोती छुपे हैं पर वे भाषाई करिश्मों के, साहित्यिक आडम्बरों के या अलंकारों की चमक वाले मोती नहीं हैं। वे गहन अभिव्यक्ति के, सच्चे अनुभवों के, कवि मन में बसी स्मृतियों के मोती हैं। इसलिये आडम्बरों के और प्रतिमानों के किनारे बैठ कर नमिता की कविताओं को टटोलने वालों को समुद्र के खारे पानी के छींटे ही मिलेंगे। संग्रह में एक लम्बी कविता 'पहल' है जो कवियित्री के लेखन के भविष्य की ओर इशारा करते हुए एक नई उम्मीद बंधाती है, जिसमें कविता महज़ कविता न रहकर एक आह्वान बन जाती है। नमिता अभी लिख रही हैं, इसलिए आने वाले समय में कई सोपान पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होंगे। इसी आशा के साथ

- विवेक मिश्र

Apr 22, 2009

‘डॉ॰ मधुकर गंगाधर – संदर्भ और साधना’













डॉ॰ मधुकर गंगाधर के जीवन एवं कृतत्व पर डॉ॰ रमेश नीलकमल द्वारा संपादित पुस्तक ‘डॉ॰ मधुकर गंगाधर – संदर्भ और साधना’ उनके समकालीन कवियों, कथाकारों एवं प्रशंसकों और आलोचकों के द्वारा लिखे लेखों का संकलन है।
यह पुस्तक एक व्यक्तित्व के निर्माण की झाँकियाँ प्रस्तुत करती है, जो पाठकों को आश्चर्यजनक एवं अतिश्योक्तिपूर्ण लग सकती हैं परन्तु डॉ॰ मधुकर गंगाधर का जीवन ही ऐसा है।
इस संकलन में एक कथाकार, एक कवि, एक नाटककार तथा एक अधिकारी और एक अक्खड़ और फक्कड़ व्यक्ति से जुड़ी सच्ची कहानियाँ हैं, जो रुकना या झुकना नहीं जानता।
डॉ॰ गंगाप्रसाद विमल, डॉ॰ मधुकर गंगाधर के कहानीकार के बारे में कुछ इस तरह कहते हैं - "20वीं शताब्दी की अधिकांश लड़ाईयाँ कहानी की सरहद पर लड़ी गईं हैं। इस लड़ाई का सचेत स्वर स्वतंत्रता के बाद की कहानी में उभरता है। सचेत इसलिये कि कहानी मानवीय संस्कृति की विशाल सम्पदा का एक छोटा सा कारण है। स्वतंत्रता के बाद भारतीय परिवेश को हम समुद्र में पड़े समूह के समानार्थक रख सकते हैं। जहाँ भारतीय जनसमाज प्रजातंत्र, परसंस्कृतिकरण, बेरोज़गारी, असमानता, पूंजीवादी दवाब, साम्राज्यवादी आकांक्षाएँ और भी न जाने कितने बिंदु हैं जिनके बीच से अहर्निश गुज़रता है। ठीक ऐसे समय में कुछ नए लेखकों ने मानव संबंधों के नए आयामों का अंकन किया। इस में यशपाल, नागार्जुन, अमृतलाल नागर, मोहन राकेश, कमलेश्वर, रेणु, मार्कण्डेय, राजेन्द्र अवस्थी, मन्नु भन्डारी, विजय चौहान, निर्मल वर्मा आदि बहुत से नाम हैं। उन्ही के समान्तर अपेक्षाकृत कुछ नए युवा स्वरों में जो कुछ नाम उस समय चर्चा में रहे उन में मधुकर गंगाधर का नाम उस दृष्टान्त की तरह है, जो पीढ़ियों के चिन्तन, उनकी दृष्टि और उनके सरोकार में भिन्नता स्पष्ट करता है।"
"प्रेमचन्द की कहानी 'कफ़न' और मधुकर गंगाधर की कहानी 'ढिबरी' दो कथाकारों की दृष्टि, उनकी पक्षधरता, उनके सम्पूर्ण चिन्तन को दो ध्रुवों के रूप में स्थापित कर देती है।"
मधुकर गंगाधर का साहित्यिक व्यक्तित्व बहु आयामी है। उन्होनें कहानियों के साथ-साथ उपन्यास, नाटक, रेडियो रूपक, संस्मरण आदि भी लिखे हैं।
उनका नाटक 'भारत भाग्य विधाता' भारतीय लोकतंत्र और उसके राजनेताओं के असली चरित्र को उजागर करता है।
लेकिन इस सब के बीच उनके कवि को नहीं भूला जा सकता। उनका कवि रूमानी न होकर यथार्थवादी है।
गंगाधर और उनके दौर के कवियों ने कल्पनायें नहीं बल्कि देखा एवं भोगा हुआ यथार्थ लिखा है।
जैसे 'गाँव' शीर्षक से कविता में धूमिल का अनुभव निम्नलिखित पंक्तियों में व्यक्त हुआ है:-
"चेहरा-चेहरा डर लटका है
घर-बाहर अवसाद है,
लगता है यह गाँव नरक का
भोजपुरी अनुवाद है"
गाँव का ऐसा ही अनुभव मधुकर गंगाधर का भी है:-
"कई दिनों की भूखी, बूढ़ी गाय
कीचड़ में धँस गई है,
मेरे गाँव की गर्दन,
अंधे घड़ियाल के मुँह में,
फँस गई है।"
मधुकर गंगाधर का कवि ख़ामोश होकर सिर्फ़ यथार्थ को देखता, सहता और कविता में रहता है।
"मेरी आँखें गोलियों की तरह चमक उठी हैं
और मैं बन्दूक की तरह तन गया हूँ।
लगता है, क़ुतुब मीनार पर मनहूस कुत्ता रोता है
नक्सल वाड़ी के सिवा पूरा मुल्क सोता है।"
मधुकर गंगाधर के जीवन पर प्रकाश डालते कई लेख भी बहुत रोचक हैं, जिनमें डॉ॰ बलदेव वंशी का लेख "सांस्कृतिक, पारिस्थितिकी और मधुकर गंगाधर" एक ऐसा लेख है जो कोई अंतरंग मित्र ही लिख सकता है। 'एक शहर बनता हुआ गाँव' शीर्षक के लिखे लेख में प्रो॰ कमला प्रसाद 'बेखबर' जिस खिलन्दड़ेपन वाले आशिक़ मिज़ाज मधुकर गंगाधर को सामने रखते हैं वह उन लोगों के लिए बिल्कुल नया है जो एक अक्खड़ और सख़्त गंगाधर को जानते हैं। इस लेख में उनके जीवन के कई प्रेम-प्रसंगों का विस्तार से सिलसिलेवार कहा जाना और अंत में उनका अपनी पुरानी कार के प्रति प्रेम उनकी जीवन शैली को दर्शाता है, जिसमें वह गाँव और शहर के बीच समन्वय बिठाते रहे। बाहरी तौर पर वह एक उच्च पदस्थ अधिकारी रहे पर मन में एक गाँव सदा बसा रहा।
संकलन के बीच-बीच में उनकी कविताओं की पँक्तियाँ पढ़कर अच्छा लगता है। एक रचनाकार के रूप में, एक मित्र, पिता, पुत्र, पति एवं एक साफ़ दिल इन्सान के रूप में मधुकर गंगाधर जैसे अग्रज साहित्यकार की छवि को संपादक ने जिस प्रकार सबके सामने रखा है वह प्रशंसनीय है। आज की पीढ़ी के सामने हमारे पुराने साहित्यकारों के रचनाकर्म एवं उनके जीवन पर इस प्रकार के संकलन, बीते समय की साहित्यिक एवं सामाजिक परिस्थितियों की एक झाँकी देखने के लिये अतीत की ओर एक झरोखा खोल देते हैं, जिससे झाँकते हुए हम फिर उस समय को कुछ देर के लिए जीने लगते हैं, जब रेणु, नागार्जुन जैसे रचनाकार मधुकर जी के साथ सड़कों पर चलते, बतियाते दिखते हैं।

- विवेक मिश्र

Apr 12, 2009

श्रद्धेय विष्णु प्रभाकर जी को श्रद्धांजलि

हिन्दी साहित्य के शीर्ष पुरूष श्रद्धेय विष्णु प्रभाकर जी के निधन पर हम सभी की ओर से श्रद्धांजलि।

हिन्दी साहित्य की विधियों में विचरते आज भी ‘आवारा मसीहा’ एक मील के पत्थर सा खड़ा मिलता है।

उनके रचनाकर्म को, उनके व्यक्तिव को, उनके आदर्श जीवन को एवं उनके हिन्दी साहित्य में अमर योगदान को ‘विवेचना’ की ओर से नमन।


- विवेक मिश्र

Apr 10, 2009

कामयाबी की दास्तान : नल्लि








"कामयाबी की दास्तान" पद्मश्री डॉ नल्लि कुप्पुस्वामी चेट्टियार की जीवनी है, जिसे प्रसिद्ध अनुवादक, लेखक एवं बहुभाषाविद् डॉ॰ एच॰ बालसुब्रह्मण्यम ने लिखा नाम है।
"नल्ली" एक ऐसा नाम है, जो भारतीय परिधानों में, विशेषकर सिल्क की गुणवत्ता के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाना जाता है। यहाँ इसी नाम के पीछे की शक्ति को उजागर करने की कोशिश की गई है। वह शक्ति के पात्र एक व्यक्ति कुप्पुस्वामी चेट्टियार नहीं हैं बल्कि एक परम्परा है, एक पूरी की पूरी दक्षिण भारतीय संस्कृति है। शुद्धता की संस्कृति। सच्चाई, कर्मठता और सरलता के संस्कारों को साथ लेकर सतत आगे बढ़ने वाली संस्कृति।
इस पुस्तक में संस्था, व्यक्ति एवं परम्परा के बीच एक ऐसा ताना- बाना डॉ॰ एच॰ बालसुब्रह्मण्यम ने बुना है, जो नल्लि जी के जीवन के बारे में तो बताता ही है, साथ ही साथ हमें दक्षिण भारतीय जीवन के दर्शन, रहन-सहन एवं गुणवत्ता के सिद्धान्तों के पीछे छुपी कठोर परिश्रमी एवं सत्यनिष्ठा पर खड़ी दक्षिण भारतीय जीवन शैली की झाँकी दिखाती चलती है।
इस में नल्लिजी के व्यक्तित्व एवं जीवन के विभिन्न आयामों पर प्रकाश डाला गया है, जिससे पता चलता है कि कोई भी संस्था के नल्लि बनने के पीछे, कितना ज्ञान, अनुभव और समर्पण होता है, जो सहज ही लोगों का भरोसा जीत लेता है और कई पीढ़ियों तक यह भरोसा क़ायम रहता है।
"ब्रेन बैंक पब्लिकेशन" द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक एक व्यापारी की जीवनी ही नहीं एक ऐसे भारतीय की कहानी है जिसने अपनी विरासत को बचाया ही नहीं है बल्कि उसे, उस गौरवशाली भविष्य के पथ पर बढ़ाया है, जहाँ से सारी दुनिया इस नाम का वैभव देख सके ।

- विवेक मिश्र

Apr 8, 2009




हिंदी साहित्य में कहानी की तथा कहानी में बाल कहानियों की यदि बात करें तो गिने-चुने नाम ही याद आते हैं और बच्चों को अच्छी कहानियाँ देने के लिए आज भी हमें पंचतन्त्र एवं अन्य पुरातन ग्रन्थों या फिर विदेशी भाषा की कहानियों के अनुवादों की ओर देखना पड़ता है।
परंपरागत दादी-नानी की कहानियाँ भी, बच्चों के बढते होमवर्क और बचे हुए समय में टी-वी एवं विडियो गेम्स ने किसी कोने में सरका दी हैं।।
ऐसे में ‘दरवाज़े खुल गए’ वेद प्रकाश कंवर का बाल कहानी संग्रह सचमुच ही उस घर के दरवाज़े खोलता है, जहाँ बच्चों के लिए एक अनोखी एवं नई दुनिया उन का इंतज़ार कर रही है।
पच्चीस कहानियों का, 128 पृष्ठों का अनुभव प्रकाशन से प्रकाशित यह संग्रह उन तमाम संभावनाओं की ओर इशारा करता है जिसमें बदलते वक़्त में बाल साहित्य को एक नई रोशनी में देखा जा सके।
वेद प्रकाश कंवर के अंग्रेज़ी में दो कहानी संग्रह तथा एक उपन्यास ‘एक नई क्रान्ति’ हिंन्दी में प्रकाशित हो चुका है।
वेद प्रकाश कंवर ने संग्रह में भाषा सहज, सरल तथा विनोदपूर्ण रखी है जो बाल एंव किशोर पाठकों को लुभाती भी है और उनकी रूचि बनाए रखती है। यह कहानियाँ वर्तमान समय में फैली तमाम कुरीतियों पर, पारिवारिक, सामाजिक, पर्यावरण संबंधी विषयों पर रोचक जानकारी तथा उपयोगी सीख देती हुई चलती हैं।
वेद प्रकाश कंवर मूलतः अंग्रेज़ी के लेखक हैं तथा उनकी मातृभाषा पंजाबी है इसलिए कहीं- कहीं हिंदी पाठकों को लय टूटती हुई लग सकती है तथा पात्रों के बीच संवाद अटपटे लग सकते हैं परन्तु कथानक नया एंव रुचिपूर्ण होने से यह कमियाँ अखरती नहीं हैं।
- विवेक मिश्र

Apr 7, 2009

दिन के उजाले की कविताएँ

कृति- दिन के उजाले में (काव्य-संग्रह)
कवि- हर्षवर्धन आर्य
विधा- कविता

आज के समय में जब कोई कविता-संग्रह मुझे प्राप्त होता है तो शिल्प, भाषा, विषय को छोड़ कर ध्यान पहले कथ्य में छिपे कवि के निज अनुभवों एवं उनकी सच्चाई तथा विश्वसनीयता पर जाता है। मन अच्छी कविता से ज्यादा सच्ची कविता ढूंढता है और उसमें दर्शक का नहीं एक दृष्टा का सब देखने का प्रयास करता है।
आज महानताएँ ढोंग बनकर सामने आ रही हैं। बड़े-बड़े व्यक्तित्वों की छाया में घोटाले पल रहे हैं। नेताओं, अफ़सरों और व्यापारियों के साथ कवि और साहित्यकार भी समयानुसार मुखौटे बदल रहे हैं। ऐसे में किसी काव्य-संग्रह को पढ़कर कोई राय बनाना कठिन हो जाता है। ऐसे ही समय में कवि हर्षवर्धन आर्य का कविता संग्रह 'दिन के उजाले' में प्राप्त हुआ। हर्ष पेशे से स्वर्णकार हैं और ऐसे परिवार से आते हैं, जहाँ उन्होंने अपने पिता के जीवन संघर्ष को बहुत क़रीब से देखा। ऐसी पृष्ठभूमि से आए कवि के लिए कविता मानसिक अवकाश में लिखी गई विलास की वस्तु नहीं है, वरन् उसके जीवन का सत्य है और इसी सत्य को प्रामाणिकता देती है। हर्ष की ये पंक्तियाँ-

पसीने से तर-ब-तर
देर रात तक
ठुक-ठुक करते हैं मेरे पिता
पीटते से हैं सोना
सोना हराम कर,

कौन कहता है-
सोने में सुगन्ध नहीं होती
फैल गई है सुगन्ध हर ओर
मेरे पिता के पसीने की!

ऐसे निज अनुभव से चलकर कविता समाज के उस वंचित, दलित वर्ग की उस पीड़ा तक पहुँचती है, जहाँ यह पूरे समाज का दर्द बन जाती हैं और कविता उसी दर्द के आगे नतमस्तक हो कर खड़ी हो जाती है-

जो भूखे के लिए
बन जाता है रोटी
जल जाता है बन कर
चूल्हे की आग

झोंक देता है
लकड़ियों की जगह
अपना तन
अपने ही हाथों से

उसी को समर्पित है
यह कविता
जो महान हुई है
उसको समर्पित होकर।

हर्ष की कविता के विषय में वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु प्रभाकर जी कहते हैं- ''कोई प्रयत्न नहीं है, सब कुछ सहज भाव से शब्दों में रमा हुआ है... कवि कुछ भी भूल नहीं पाता... कवि को बचपन के चेहरे की खोज है। 'दिन के उजाले' का कवि सोने की गन्ध पहचान लेता है।''
सचमुच ही हर्ष 'गवाह है आंगन का नीम' कविता में स्मृतियों का पीछा करते हैं-

तुम्हें याद है ना
जब इसकी डाली पर लगे
बर्र-ततैयों के छत्तों को
तुमने मारा था पत्थर
और ततैया ने काट खाया था
तुम्हारे कान पर
तब तुम रोए थे इतना
जितना रोई थी माँ
बड़की दीदी के ससुराल जाने पर
लिपट कर बुआ के गले
इसी नीम के नीचे

तब दीदी भी क्या कम रोई थी
गाड़ी में बैठने के बाद भी
ढूंढती वे अठारह बसंत
जो लिपटे थे
इसी नीम की टहनियों पर
फ्रॉक के धागों
तो कभी दुपट्टे की उधड़ी
क़शीदाकारी की तरह।

हर्ष का कवि जब अपने गाँव से शहर आता है तो वह खाली हाथ नहीं आता, वह इस महानगर के लिए अपना 'बहुत जेबों वाला कुर्ता' लाता है और उसमें भर कर लाता है, वो सब कुछ जिसकी प्रचुरता में, गाँव में लिखी थी उसने सच्ची कविता-

सी दो दर्जी
बहुत जेबों वाला एक कुर्ता
कुछ जेबों में रखूंगा मैं
रंग-बिरंगे फूलों की ख़ुश्बू
और कुछ में ताज़ी हवा...

कुछ में रखूंगा
मोती जैसे स्वच्छ नीर को...

कुछ में रक्खूंगा गुनगुनी
चटकीली धूप...
फिर
फिर भर कर उसे
चल दूंगा बाँटने
शहर की
झोंपड़-पट्टी में...

सच! हर्ष के पास बहुत जेबों वाला, बड़ी-बड़ी जेबों वाला कुर्ता है, जिसे 'दिन के उजाले में' लेकर वह कविता की ख़ुशबू बिखेरने के लिए निकले हैं और उन्हें भरोसा है कि-

किरण की नन्हीं से किरच में
समाई है तीव्र सौम्य ऊर्जा
हवा के प्राण भर झोंके में
समाया है समग्र प्राण-विधान।

ऐसे ही हवा के झोंके को समाज में फूँकता है, हर्ष का कवि। एक चिंगारी देकर कुछ ऐसा अलाव जलाना चाहता है, जिसके ताप से जम चुकी चेतना पिघल सके। हर्ष के ही शब्दों में कहें तो-

एक चिनगारी
सुलगाना चाहता हूँ
ताकि धधक उठे अलाव
जिसके पास आकर
जन-जन ताप सकें आग
जिससे पिघल सके
शीत में जम चुकी
चेतना!

आख़िर में हर्ष के कवित्व के लिए उनकी चिनगारी सुलगाने और उसे हवा देने की इच्छा लिए मैं सिर्फ़ इतना ही कहूँगा- 'आमीन'!

-विवेक मिश्रा

Mar 26, 2009






कहानी संग्रह का लोकार्पण
हिंदी भवन सभागार में आयोजित एक कार्यक्रम में कवि- कथाकार विवेक मिश्र की कृति “हनियां तथा अन्य कहानियां” का लोकार्पण वरिष्ठ कथाकार हिमांशु जोशी और दिल्ली विधान सभा उपाध्यक्ष अमरीश सिंह गौतम ने 21मार्च को किया।

विवेक मिश्र के रचनाकर्म और कहानियों पर बोलते हुए कहा कि लेखक के रूप में प्रस्तुत कहानियां साहित्य का हिस्सा तो हैं ही, इन कहानियों में जीवन दर्शन भी समाहित है। डाँ हरीश नवल ने विवेक की कहानियों के अंत को पाठकों के लिये चिंतन बिंदु देने वाला बताया। डाँ अरुण प्रकाश ढौंढियाल ने विवेक की कहानियों में परंपरा, आंचलिकता के साथ शहरी जीवन की विषमताओं को अभिव्यक्त करने वाला कहा। विवेक गौतम ने मिश्र की रचना यात्रा के पड़ावों के साथ उनके संघर्ष के विभिन्न बिंदुओं को रेखांकित किया। चित्रकार वी एस राही, पूर्व निदेशक ज्ञानपीठ दिनेश मिश्र, हिन्दी विद आर के कुशवाहा भी मौजूद थे। विवेक मिश्र ने अपनी कहानी पाठ भी किया।

Mar 15, 2009


विवेक मिश्र के कहानी संग्रह “हनियां तथा अन्य कहानियाँ” का
लोकार्पण
तथा
लेखक द्वारा संग्रह से कहानी पाठ

21 मार्च, शनिवार, सांय 5 बजे, हिंदी भवन, दिल्ली में आयोजित
किया जा रहा है। कार्यक्रम में आप सादर आमंत्रित हैं।
निवेदक
विवेक गौतम
महासचिव, उदभव
(9911170832,9810853128)
http://www.vivechna.blogspot.com/ , udbhav@yahoo.co.in नेहा प्रकाशन, दिल्ली
विवेक मिश्र एक ऐसे युवा रचनाकार हैं, जो कविता एवं कहानी दोनों में ही अपने विचारों की मौलिकता बनाए रखते हैं। अपने लेखन में वह पुराने चौखटों और सांचों को तोड़ते हैं।
उनकी कहानियाँ हमें पात्रों एवं घटनाओं के साथ-साथ समाज, संस्कृति, इतिहास और उनके वर्तमान समय पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में बताती चलती है।
“हनियां तथा अन्य कहानियाँ” संग्रह की लम्बी कहानी “हनियां” इक्कीसवीं सदी में भौतिकता की होड़ में दौड़ते हमारे देश की उस दलित महिला की कहानी है, जो इस दौड़ से अनजान, अपने समय से बहुत पीछे छूट गई है और चौदहवीं सदी की प्रताड़नाएँ झेलती हुई जीती है और बदलते समय में एक ऐसे षड़यंत्र, एक ऐसे दुष्चक्र का शिकार हो जाती है, जहाँ से निकल पाना किसी इंसान के बस की बात नहीं है। आज यह षड़यंत्र केवल हनियां के खिलाफ़ नहीं रचा जा रहा बल्कि हर उस व्यक्ति के खिलाफ़ रचा जा रहा है जो पद, पैसा और सत्ता से दूर है।
हनियां जैसी कहानियां लिखने के लिये जिस आंतरिक मज़बूती, सच्चाई और हिम्मत की ज़रूरत है वह विवेक मिश्र के लेखन में दिखती है, उनकी कहानियाँ बेलाग आगे बढ़ती, समय के सीने पर निशान बनाती चलती हैं। आज के समय में ऐसी कहानियों का, ऐसे संग्रह का और ऐसे लेखक का प्रकाश में आना एक उम्मीद बँधाता है ।
पत्रकार – मनोज सिन्हा

Mar 1, 2009

जीवन के हर रंग की कहानियाँ

कृति- हनियां तथा अन्य कहानियाँ
लेखक- विवेक मिश्र (9810853128)
विधा- कहानी
प्रकाशक- नेहा प्रकाशन
मूल्य- 125/-
हमारी ज़िन्दगी के पल एक-दूसरे से इस पेचीदग़ी से गुँथे हुए होते हैं कि उन्हें एक दूसरे से अलग कर पाना लगभग नामुमकिन जान पड़ता है। यह ऐसे ही है जैसे किसी वृत का आरंभ बिन्दु तलाशना! कहानीकार अपने जीवन की घटनाओं को एक दूसरे से विलगाते हुए उनका आदि तथा अंत तो ढूंढता ही है साथ ही उस पूरे कालखण्ड को इस सलीक़े से बयां करता है कि उसमें से भूत तथा भविष्य का हस्तक्षेप समाप्त हो जाता है।
कहानी कहने की यह बारीक़ी और शालीनता विवेक मिश्र की कहानियों में बार-बार दिखाई देती है। हनियां तथा अन्य कहानियाँ कुल नौ कहानियों की एक ऐसी पुस्तक है जिसमें सभी कहानियाँ लेखक के जीवन में घटित घटनाएँ तो हैं, लेकिन कोई भी एक घटना किसी भी दूसरी घटना से न तो प्रभावित है न सम्बध्द ही!
इन कहानियों को पढ़कर स्पष्ट होता है कि लेखक ने कृष्ण का सा जीवन जीने में विश्वास किया है। ऐसा जीवन जिसमें मथुरा, गोकुल, द्वारिका और कुरुक्षेत्र को परस्पर घालमेल कर पाना भी मुमकिन नहीं है और यह भी नकार पाना असंभव है कि इन चारों घटनाक्रमों का केन्द्र स्वयं कृष्ण ही हैं।
पिताजी की मृत्यु के अति संवेदनशील पल को पूरी गहनता से जीकर लेखक ने इस अंदाज़ में बयान किया है कि गुब्बारा कहानी को पढ़ते हुए कई बार पाठक इस पल को जी लेते हैं।
गमले कहानी में प्रकृति का रूपक लेकर किसी अपने का शब्दचित्र गढ़ने में पूरी तरह सफल हुए विवेक ने यह भी सिध्द किया है कि अच्छा लेखन बहुत लम्बा हो, यह आवश्यक नहीं है।
तीसरी कहानी है हनियां। लेखक ने साहित्य की सौम्यता को बनाए रखते हुए 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली मानसिकता पर 'सत्यमेव जयते' की नीति का प्रहार किया है। इस बात से इनक़ार नहीं किया जा सकता कि लेखक ने हनियां के चरित्र को न केवल अमर किया बल्क़ि तीन सिर वाले उस प्रेत का चित्र भी सार्वजनिक किया है जिसका जन्म इसी समाज से रोज़ाना होता है।
शब्दों से चित्र कैसे बनाया जाता है इसका श्रेष्ठ उदाहरण है गोष्ठी कहानी। इस कहानी में बुंदेलखंड के गली-गलियारों और कस्बाई जीवन की तस्वीर तो है ही साथ ही साथ समाज में सड़ रही संवेदनाओं की लाश का पंचनामा भी मौजूद है।
बड्डे गुरु और लोकतंत्र कहानी न होकर एक शालीन व्यंग्य है लोकतंत्र की वर्तमान दशा और सादगी के उपहास पर। दुर्गा में बचपन और धार्मिक आडम्बर दोनों की तस्वीर लेखक ने बखूबी उतारी है।
तितली कहानी मूलत: कहानी मात्र नहीं है, यह एक ऐसी आचार संहिता है जो महानगरीय जीवन जीने वाली और कैशोर्य के पायदान पर खड़ी हर लड़की को पढ़ लेनी चाहिए। मन की कोमल भावनाओं के नाम पर तन का कितना भयानक शोषण किया जा सकता है इसकी प्रतिध्वनि तितली कहानी में स्पष्ट सुनाई देती है। इसके साथ ही इस कहानी में एक और ख़ास बात यह है कि इसमें यह भी इंगित किया गया है कि नारी सशक्तिकरण के सारे नारे और नारी सशक्तीकरण के सारे दावे कितने खोखले और दिखावटी हैं इसका अहसास तभी होता है जब व्यक्तिगत स्तर पर इस विचार से जूझने का अवसर आए। इसके अतिरिक्त एक और महत्तवपूर्ण पहलू जो इस कहानी में नए सिरे से उजागर होता है वह यह है कि जब-जब सीता मर्यादा की लक्ष्मण रेखा पार करेगी तब-तब उसे रावण द्वारा अपहृत होना ही पड़ेगा।
इसके बाद की दोनों कहानियाँ, और चाहे जो भी कुछ हों पर उन्हें कहानी नहीं कहा जा सकता। हाँ इतना अवश्य है कि वे पुस्तक की अन्य कहानियों से कुछ अधिक ही सशक्त हैं। सृजन को जब भ्रष्टतंत्र की पेचीदगियों से जूझना पड़ता है तो उसकी कोमल पाँखुरियाँ कैसे मसली जाती हैं इसकी भयावह तस्वीर को लेखक ने एक लेखक की डायरी नामक कहानी में उकेरी है और आत्मकथ्य को आत्मकथ्य नामक 'कहानी' में ही लिखकर लेखक ने एक नया प्रयोग किया है, जो उनकी रचनाधर्मिता का गवाह भी है।
कुल मिलाकर पूरी पुस्तक पठनीय होने के साथ-साथ विचारणीय भी है।
प्रकाशकीय स्तर पर कुछ वर्तनी संबंधी अशुध्दियाँ हैं, जिनसे कहीं भी अवरोध तो उत्पन्न नहीं होता लेकिन उन्हें नज़रंदाज़ किया जाना भी संभव नहीं है। साज-सज्जा की दृष्टि से पुस्तक आकर्षक है और आवरण-पृष्ठ उतना ही सादा है जितनी विवेक मिश्र की कहानियाँ, हाँ कहानियों की गहन अंतरात्मा की तरह आवरण पृष्ठ पर भी एक गंभीर कलाकृति अवश्य सम्मिलित की गई है, जो पुस्तक के पूरे कथ्य को अपने में समेटने का प्रयास करती जान पड़ती है।
-चिराग़ जैन

Jan 29, 2009

तबियत का शायर


कृति- चौमास
विधा- कविता
कवि- राजगोपाल सिंह
प्रकाशक- अमृत प्रकाशन
गीत की लय और ग़ज़ल की नाज़ुक बयानी के महीन धागे जहाँ बिना कोई गाँठ लगाए एक-दूसरे से जुड़ते हैं। वहीं से उठती हैं कवि राजगोपाल सिंह की रचनाएँ। गीत और ग़ज़ल के पिछले चार दशक के सफ़र में राजगोपाल सिंह ऐसे बरगद के पेड़ हैं, जिनकी छाँव में हरेक गीत और ग़ज़ल सुनने वाला और कहने वाला ज़रूर कुछ पल सुस्ता के आगे बढ़ा है।
यूँ तो ग़ज़ल कहने के बारे में बहुत-सी बातें कही और सुनी जाती हैं पर यहाँ मैं वह कहना चाहूंगा जो निश्तर ख़ानकाही ग़ज़ल के विषय में कहते हैं। वे कहते हैं कि जब भी कोई ग़ज़ल संग्रह मेरे हाथ में आता है तो मैं सबसे पहले ग़ज़लों के लिए प्रयोग किए गए क़ाफ़िए देखता हूँ और जानने की क़ोशिश करता हूँ कि ग़ज़लकार क़ाफ़िए को अपना ख़याल दे रहा है या ख़ुद क़ाफ़िए के आगे हाथ जोड़े खड़ा है।
अगर इस नज़रिए से राजगोपाल जी की ग़ज़लें सुनी जाएँ तो वे हमें एक ऐसे सफ़र पर ले जाती हैं जिसका अगला स्टेशन कौन-सा होगा; ये अंदाज़ा हम नहीं लगा सकते। या यूँ कहें कि किसी फ़कीर का फ़लसफा है उनकी ग़ज़लें, जो ज़मीन से आसमान को, साकार से निराकार को जोड़ती चलती हैं। उनकी ग़ज़लों में महज़ क़ाफ़िया पैमाई नहीं है। उनकी ग़ज़लें गहरे ख़यालों और सहज क़ाफ़ियों से एक ऐसी झीनी-सी चादर बुनती हुई चलती हैं, जिसको ओढ़ लेने पर दुनिया की हक़ीकत और खुलकर उजागर होती हैं-
मौन ओढ़े हैं सभी, तैयारियाँ होंगी ज़रूर
राख के नीचे दबी, चिन्गारियाँ होंगी ज़रूर
आज भी आदम की बेटी, हंटरों की ज़द में है
हर गिलहरी के बदन पर धारियाँ होंगी ज़रूर
या
यह भी मुमकिन है ये बौनों का नगर हो इसलिए
छोटे दरवाज़ों की ख़ातिर अपना क़द छोटा न कर
राजगोपाल सिंह जी ने ग़ज़ल को नए तेवर से सजाया भी, सँवारा भी और ज़रूरत पड़ने पे बड़ी बेतक़ल्लुफ़ी से इसे अपने मुताबिक़ ढाला भी-
गिर के आकाश से नट तड़पता रहा
सब बजाते रहे जोश में तालियाँ
मेरे आंगन में ख़ुशियाँ पलीं इस तरह
निर्धनों के यहाँ जिस तरह बेटियाँ
मैं हूँ सूरज, मेरी शायरी धूप है
धूप रोकेंगी क्या काँच की खिड़कियाँ
उनके लेखन में हमारी संस्कृति की विरासत है। समाज में व्याप्त रूढ़ियों से जूझते आदमी की घुटन है और बुराई के सामने सीना तानकर खड़े होने का हौसला है। उनकी ग़ज़लों में कहीं किसी हसीं हमसफ़र से हाथ छूट जाने की कसक है, तो कहीं मन की गहराइयों में करवटें लेते और बार-बार जीवन्त हो उठते गाँव के नुक्कड़ हैं, गाँव की गलियाँ हैं, पुराना पीपल है, बूढ़ा बरगद है और माँ के ऑंसुओं से नम उसका ममता से भरा ऑंचल है। और हम सबके साथ अपने दर्द को मुस्कुराते हुए कहने का अनोखा अंदाज़ भी है-
वो भी तो इक सागर था
एक मुक़म्मल प्यास जिया
अधरों पर मधुमास रही
ऑंखों ने चौमास जिया
'चौमास' राजगोपाल सिंह जी की ग़ज़लों, गीतों और दोहों का एक ऐसा संग्रह है जिसमें चुन-चुन कर उनकी वे रचनाएँ रखी गई हैं जो शिल्प, कथ्य और भाव की दृष्टि से श्रेष्ठ हैं और जन गीतों का दर्जा पा चुकी हैं। एक आम आदमी की पीड़ा को उसी के शब्दों में कह कर राजगोपाल सिंह जी आज सच्चे जनकवि बनकर सामने खड़े हैं-
न आंगन में किसी के तुलसी
न पिछवाड़े नीम
सूख गए सब ताल-तलैया
हम हो गए यतीम
उनके गीत ढहती भारतीय संस्कृति की विरासत को बचाकर गीतों में संजोकर आने वाली पीढ़ी के सामने एक ऐसा साहित्य रखने की उत्कंठा से भरे हैं, जो सदियों तक भारत के जनमानस पर छाया रहेगा। और एक समय कहा जाएगा कि यदि सच्चा गाँव, सच्चा भारत, सच्चे रिश्तों को देखना हो, उनकी सौंधी गंध पानी हो, तो एक बार जनकवि राजगोपाल सिंह की रचनाओं को पढ़ो। उनकी दुनिया में विचरण करो, तुम्हें भारत की सच्ची झाँकी दिखाई देगी।
-विवेक मिश्रा

Jan 3, 2009

नयी पीढ़ी की सृजनशीलता का एक गुलदस्ता


कृति- पहली दस्तक
विधा- कविता
संपादन- चिराग जैन (9311573612)
प्रकाशक- पाँखी प्रकाशन
मूल्य- 120/-

प्रत्येक संस्थान में नयी प्रतिभाओं की हमेशा दरकार रहती है। काव्य जगत् भी इस सत्य से अछूता नहीं है। हर दौर में नये रचनाकारों का समाज ने मुक्त हृदय से स्वागत किया है। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए चिराग जैन ने 15 युवा कवि-कवयित्रियों की रचनाओं का संकलन किया है।
अलग-अलग तेवरों की रचनाओं की इस संकलन में मौज़ूदगी यह सिद्ध करती हैं कि हिंदी कवि-सम्मेलन मंच पर भविष्य में सभी रस और रंग देखने को मिलते रहेंगे। संकलन के पहले कवि और संपादक चिराग जैन की रचनाओं में प्रेम की पवित्रता का एहसास भी है और संवेदना की छुअन भी। माँ के व्यक्तित्व को वैराट्य से जोड़ते हुए चिराग कहते हैं-
मेरी अनपढ़ माँ
वास्तव में अनपढ़ नहीं है
वह बातचीत के दौरान
पिताजी का चेहरा पढ़ लेती है।

उधर नील अपने बचपन को याद करते हुए कहते हैं-
आज मेरे इस पागल मन को
दादी माँ से
परियों वाली
नन्हीं-मुन्नी चिड़ियों वाली
गुड्डे वाली, गुड़ियों वाली
सात रंग के सपनों वाली
एक कहानी फिर सुननी है

प्रेम की संवेदनाओं को स्पर्श करती पंक्तियों के साथ मीनाक्षी जिजीविषा बड़ी सादगी से कहती हैं-
तुमसे परिचय
जैसे बचपन के खेल-खेल में
ज़िंदगी अचानक
पीछे से पीठ पर हाथ रखे
और धीरे से कान में कहे....
धप्पा....!

संबंधों के वैभत्स्य की ओर इंगित करते हुए रश्मि सानन शेर कहती हैं=
तेरी यादें भुलाना चाहती हूँ
मैं दो पल मुस्कुराना चाहती हूँ

ग़रीबी और भूख के नंगे सच को गायत्री भानु कुछ इस अन्दाज़ में बयाँ करती हैं-
रोटी की लड़ाई
दुनिया की सबसे पहली लड़ाई है
रोटी की लड़ाई
दुनिया की सबसे बड़ी लड़ाई है
रोटी की लड़ाई
दुनिया की सबसे लंबी लड़ाई है

अनुत्तरित प्रश्न में नीरजा चतुर्वेदी अपने मन की पीड़ा को धीरे से कहती हैं-
जब तुम
मुझे छोड़
यहाँ से वहाँ चले गये थे
सच कहती हूँ
तुम्हारे संग
मेरे कितने सावन
चले गये

नारी मन की अनुभूतियों को हौले से अभिव्यक्त करते हुए शशिकांत सदैव ने बेबाक़ी से कहा-
शायद पुरुष
सदा स्वर्ग की कामना करता है
और स्त्री
सिर्फ़ कामना नहीं करती
स्वर्ग बनाने की
क़ोशिश में लगी रहती है

संवेदनाओं के साथ-साथ गुदगुदी और ठहाकों की गूंज भी इन कवियों की रचनाओं में पर्याप्त मात्रा में थी। पुलिसिया भ्रष्ट्राचार पर तन्ज़ करते हुए विनोद विक्रम लिखते हैं-
कॉन्स्टेबल की भर्ती के हमने भी फ़ार्म भरे थे
एक तरह से हमने अपने तन-मन
मृत्यु के नाम करे थे
क्योंकी जिस दिन दौड़ थी हमारी स्पोर्ट्स ग्राउंड में
बेहोश होने लगे थे हम
पहले ही राउंड में
एक बार तो दिल ने कहा-
विनोद! हार जा प्यारे
पर हमको तो दिख रहे थे
ऊपर की कमाई के नोट करारे

वैवाहिक संबंधों के ख़ौफ़ को बयाँ करते हुए ब्रजेश द्विवेदी कहते हैं-
भैया अभी कुँवारे हो तो रहना अभी कुँवारे
तुम हो ऐसे क्वारे जिस पर दुनिया डोरे डाले

दीपक सैनी भी हास्य के माध्यम से राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार को आड़े हाथ लेते हैं और नेता चालीसा की शुरुआत कुछ इस तरह करते हैं-
निज चरणों से नित्य आपने, लात देश को मारी
एक हाथ से वोट बटोरे, दूजे से चलाई आरी

राष्ट्रभक्ति की भावना से ओत-प्रोत गीत में प्रीति विश्वास भारत की वंदना करती हुई नज़र आती हैं-
कण-कण तीर्थ करोड़ों बसते, क्षण-क्षण पर्व जहाँ है
कोई बतलाए दुनिया में ऐसा स्वर्ग कहाँ है

इसी भावना को अरुण अद्भुत ने कुछ ऐसे व्यक्त किया है-
शत्रुओं का सदा मुँह तोड़ देती है जवाब
किंतु मित्र की है मित्र माटी मेरे देश की
मातृ भू की रक्षा करें, मौत से कभी न डरें
ऐसे देती है चरित्र, माटी मेरे देश की

व्यंग्यपूर्ण शैली में सांस्कृतिक प्रदूषण पर लानत भेजते हुए हरमिन्द्र पाल कहते हैं-
जब मैंने सुना ये गाना
'जिगर मा बड़ी आग है, बीड़ी जलाना'
तो हैरान हो गया मैं
परेशान हो गया मैं
क्योंकि मैंने तो सुना था
कि जिगर की आग तो देशभक्तों में होती थी
जिन्होंने हँसते-हँसते देश के लिये जान दी थी

भगतसिंह की क़ुर्बानी याद करते हुए कलाम भारती कहते हैं-
भगतसिंह की क़ुर्बानी इतिहास भुला ना पाएगा
और तिरंगा सदियों तक गुणगान भगत का गाएगा

भारत के भविष्य के लिये आशावादी दृष्टिकोण रखने वाले अमरनाथ आकाश गीत लिखते हैं-
एक दिन भारत फिर से सोने की चिड़िया कहलायेगा
अपनी खोई गरिमा को, फिर से वापस पा जायेगा

कुल मिलाकर पूरा संकलन ही श्रेष्ठ रचनाओं का एक पुलिंदा है।

पुनर्जन्म की वैज्ञानिक पुष्टि करती एक पुस्तक


कृति- बोर्न अगेन
विधा- शोध
लेखक- डॉ वाल्टर सेमकिव
अनुवादक- राजेन्द्र अग्रवाल एवं डॉ संध्या गर्ग
प्रकाशक- रिटाना बुक्स
मूल्य- 195/-


मृत्यु मनुष्य के लिये हमेशा ही एक अनबूझ पहेली रही है। मृत्यु के बाद आत्मा का क्या होता है, क्या मरने के बाद आत्मा दोबारा जन्म लेती है, क्या मनुष्य अपने कर्मों का फल भोगने के लिये बार-बार जन्म लेता है और क्या किसी मनुष्य को अपना पिछला जन्म याद रह सकता है- ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न हमारे मानस् में कुलबुलाते रहते हैं।
ऐसे ही तमाम प्रश्नों का हल खोजती एक पुस्तक है बोर्न अगेन। अमरीकी चिकित्सक डॉ वॉल्टर सेमकिव ने विश्व के तमाम देशों के ऐसे मामलों पर शोध किया है, जिनमें किसी को उसके पिछले जन्म की स्मृतियाँ याद हों। भारत की प्रसिद्ध राजनैतिक, सिने और अन्य हस्तियों के पूर्वजन्मों की भी लेखक ने खोज की है। मूलतः अंग्रेज़ी भाषा में लिखी गयी इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद राजेन्द्र अग्रवाल और डॉ संध्या गर्ग ने किया है।
इस पुस्तक में हिंदी पाठकों को पुनर्जन्म के सिद्धांत और उसके प्रमाणों की जानकारी तो मिलेगी ही, साथ ही साथ भारत और पाकिस्तान में जन्मीं जानी-मानी हस्तियों के पूर्वजन्मों के विषय में भी रोचक और अश्चर्यजनक तथ्य जानने को मिलेंगे।
एपीजे अबुल कलाम, अमिताभ बच्चन, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, शाहरुख़ ख़ान और बेनज़ीर भुट्टो समेत कई हस्तियों के पूर्व जीवन की प्रामाणिक कहानी इस पुस्तक में आप पढ़ सकेंगे। जिन लोगों पर लेखक ने शोध किया है उनके चित्रों, आदतों, सोच और जीवनशैली में समानता के प्रमाण भी पुस्तक में समाविष्ट किये गये हैं।
लेखक ने सिद्ध किया है कि आत्माएँ एक जन्म से दूसरे जन्म तक लिंग, राष्ट्रीयता और धर्म परिवर्तन भी करती हैं। लेखक का मानना है कि यदि इस तथ्य को सभी जान और मान लें तो शायद इस धरती पर भौगोलिक विविधता, धर्म, भाषा और अन्य भेद-भाव को समाप्त करने में सहायता मिल सके।
पुस्तक पठनीय होने के साथ-साथ संग्रहणीय भी है।