उपन्यास – आकाश चम्पा
लेखक – संजीव
प्रकाशक – रेमाधव पब्लिकेशन्स प्राइवेट लिमिटेड
मूल्य – रू 240/-
दुनिया के पवित्रतम शब्द हैं “मैं ग़लत था”
यूँ तो किसी के मान लेने से ही कि वह ग़लत था, उसकी भूल सुधार की इच्छा का बीज पड़ जाता है। परन्तु इतिहास में जाकर भूलों को ढूँढना, उन्हें सुधारना एक ज़रूरी एंव जोख़िम भरा काम है पर उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है इतिहास से बाहर वर्तमान में हो रही भूलों को न केवल समझना बल्कि आगे बढ़कर उन्हें रोकना और उसके लिये बड़े से बड़ा जोख़िम उठाना। इन्हीं दो किनारों के बीच बहती है आकाश चम्पा के नायक मोतीलाल के जीवन की नदी।
आकाश चम्पा का नायक मिथिहास नहीं इतिहास को खोजना चाहता है, वह रियलटी नहीं एक्ज़ैक्टिट्यूड को थाम कर सत्य का पुनरावेष्ण करना चाहता है और उसकी पुनर्स्थापना भी। परन्तु इतिहास या कहें सच्चा इतिहास कितना कारगर होता है वर्तमान जीवन को समझने, उसकी चुनौतियों का सामना करने में, जबकि नित नया इतिहास बन रहा है और उस में भी पल-पल शताब्दियों पुराने इतिहास से भी बड़ी और भूलें हो रहीं हैं। आज हिंसा और विध्वंस के लिये मानवता विरोधी ताक़तों के हाथ में जो हथियार हैं, वह इतिहास में प्रयुक्त हथियारों से हज़ारों गुना ज़्यादा तबाही फैलाने वाले हैं। इसी अन्तर्द्वन्द से जूझते मोतीलाल समय की नदी में बहते हैं – “नदिया एक घाट बहुतेरा……” से रास्ते में कई घाट, कई पड़ाव आते हैं और हर घाट से नदी अलग दिखती है, और वह उस घाट पर खड़े लोगों के लिये रियलटी भी है पर उस पड़ाव की, उस घाट की यथा तथ्य स्थिति (एक्ज़ैक्टिट्यूड) क्या है? यही देखने-समझने के लिये यह नदी कहीं-कहीं रूक जाती है और इसी के साथ घूमती पृथ्वी, चाँद-सितारे सब ठिठक जाते हैं और फिर इतिहास या कहें मिथिहास से निकल-निकल कर पात्र अपने असली चेहरे दिखाते हैं जो चौंका देने वाले हैं, वहाँ ऐसे भी कई चेहरे मिलते हैं जिन्हें मिथिहास लिखने वालों ने नज़र अन्दाज़ कर दिया या, यह सोच कर दफ़्न कर दिया कि शायद अब कोई समय के पन्ने फिर नहीं पलटेगा और यह चेहरे झूठे इतिहास के मलबे में दब कर दम तोड़ देगें। परन्तु आकाश चम्पा में इतिहास फिर से जी उठा और उसी के साथ जी उठी हैं वे सभी कराहें, वेदनाएँ जो शताब्दियों से मिथिहास के मलबे के नीचे दबी छ्टपटाती रहीं और तमाम इतिहासकार उसी मलबे पर विशाल अट्टालिकाएँ खड़ी करते रहे, जो संजीव जी के इस उपन्यास में भरभरा कर गिरती हैं।
इन इतिहास की भूलों को सुधारने में मोतीलल इतने खो जाते हैं कि इतिहास से बाहर घटने वाले वर्तमान पर उसका ध्यान ही नहीं जाता, जो हर पल इतिहास बन रहा है, और जब ध्यान जाता है तब बहुत देर हो चुकि होती है, पर फिर भी मोतीलाल इतिहास से बाहर निकलते है। अन्याय के ख़िलाफ़ खड़े होते हैं, संघर्ष में शामिल होते हैं और फिर ख़ुद इतिहास बन जाते हैं। आकाश चम्पा एक साधारण सत्ता एंव समाज में लगभग नगण्य सी हैसियत रखने वाले एक आम आदमी के असाधारण संघर्ष की कहानी है। और यह संघर्ष भूत-वर्तमान और भविष्य के लिये एक साथ चलता है। और इस में व्यैक्तिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक संघर्षों के साथ इतिहास के प्रेतों से भी निरन्तर भीषण संग्राम होता है, जिस में अन्ततः मोतीलाल की विजय होती है परन्तु वह विजय व्यैक्तिक नहीं है और न ही वह उसके संघर्ष का समापन ही है, बल्कि वह बुझते दिए की भभकती लौ की आवाज़ है, जो बुझते-बुझते भी अन्धेरे से लड़ना सिखा जाती है।
“यह उदय की लाली भी है और अंत की भी।” यह भूत, भविष्य और वर्तमान को एक साथ संदेश देती है।
“बुलबुल तरू की फुगनी पर से संदेश सुनाती यौवन का।” और इस संदेश के साथ आकाश चम्पा असली आकाश चम्पा की तरह यह उम्मीद बँधा जाती है कि जिन डालियों पर फूल नहीं आए, उन पर फिर बहार आएगी, फिर फूल लगेंगे।
पहाड़ियों को पहाड़ से उतारा जाएगा, भुला दी गई जातियों को ढूँढ कर उनके शौर्य की, उनके संघर्ष की गाथा फिर से लिखी जाएगी। इतिहास की स्लेट से सब कुछ मिटा कर फिर इतिहास लिखा जाएगा।
-‘विवेक मिश्र’-
संजीव समकालीन हिंदी कथा-साहित्य में प्रथम पांक्तेय हस्ताक्षर हैं।
कथा क्रम, इंदु शर्मा (लंदन), भिखारी ठाकुर एंव पहल जैसे महत्वपूर्ण सम्मानों से विभूषित हैं। वर्तमान में ‘हंस’ के कार्यकारी संपादक हैं।
Jun 28, 2009
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