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किताब - शिक्षा का कर्म-साहित्य का मर्म- डॉ अरुण प्रकाश ढौंडियाल
संपादक - डॉ विवेक गौतम
डॉ अरुण प्रकाश ढौंडियाल जी को मैं उनसे साक्षात् मिलने के पहले से ही उनकी कहानियों के माध्यम से जानता था, पर जब मैं उनसे मिला, मैंने उन्हें व्यक्तिगत रूप से जाना तो पाया कि एक विद्वान शिक्षाविद्, कुशल प्रकाशक के साथ-साथ वह बहुत गहरी संवेदनाओं के कवि भी हैं। उस कवि के भीतर ही, अपनी कुशल प्रकाशक की छवि से इतर, बड़े जतन से उन्होंने पहाड़ी संस्कृति और प्रेम से लबालब हृदय वाले इंसान को संजो कर रखा है। वह इंसान जो दूसरों की तकलीफ़ में मीलों चल सकता है। वह इंसान जो इस महानगर की आपा-धापी में भी अपना काम छोड़कर दूसरों की मदद में जुट सकता है।
वे सहज ही अपने स्वभाव से एक किस्सागो हैं। वह जो कुछ सुनाते, लगता यह तो एक नई कहानी का प्लॉट है। मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि एक कवि-कहानीकार के रूप में उन्होंने जो कुछ भी लिखा है, उससे कहीं ज़्यादा अभी भी उनके मन में है, उनकी स्मृतियों में है, जिसको अभी पन्नों पर उतरना बाक़ी है।
उनके भीतर के कहानीकार की प्रतिभा अन्य समकालीन आंचलिक कहानीकारों से अलग है। वह बहुत सहज, सरल रहते हुए भी सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिस्थियों पर पैनी नज़र रखते हैं। वह उम्र के छ: दशक पार करने के बाद भी, उस माटी से, उस परिवेश से जुड़े हैं जहाँ उनका जन्म और पालन-पोषण हुआ। आज भी पहाड़, उसकी संस्कृति, वहाँ के समस्त क्रियाकलाप, जीवन की ऊहा-पोह, उसके संघर्ष और साथ-साथ वहाँ की प्राकृतिक छटा, वहाँ का सौन्दर्य, वहाँ के निवासियों का प्रेम एवं वात्सल्य, उसकी निश्छलता उनके मन-मस्तिष्क में, उनके व्यक्तित्व में पूरी ताज़गी के साथ उपस्थित है। उनकी कहानियों में यदि पहाड़ी जीवन की कठिनाइयों का लेखा-जोखा है, तो वहाँ के आनंद और उत्सव का भी ज़िक्र है। वे विस्थापन के दर्द को समझते हैं और अपनी कहानियों में बहुत धीरे-से संबंधों के टूटने की कसक को पिरोते है। डॉ ढौंडियाल ने भले ही पहाड़ छोड़ दिया हो, पर वह पूरे आयतन और भार के साथ उनमें बसा हुआ है, जैसे चंदन की शाख़ पेड़ से कट कर भी उसकी ख़ुशबू हमेशा अपने साथ रखती है, वैसे ही उनमें, उनकी आँखों में पहाड़ की संस्कृति, उसका भोलापन सजा रहता है, जो उनसे मिलने पर महक उठता है। ……… चमक उठता और धीरे-धीरे प्रेम का अरुणोदय होने लगता है उसका प्रकाश फैलने लगता है। इस प्रकाश की चमक बढ़ती रहे। उसकी किरणों का सान्निध्य सदा बना रहे, इसी कामना के साथ।
-विवेक मिश्र-