Sep 17, 2010

गहरे सामाजिक सरोकारों की कहानियाँ -'आज का दुर्वासा' कहानी संग्रह


गहरे सामाजिक सरोकारों की कहानियाँ हैं सन्तोष खन्ना के कहानी संग्रह 'आज का दुर्वासा' में।
समीक्षक - विवेक मिश्र

www.vivechna.blogspot.com






कृति - आज का दुर्वासा
विधा - कहानी
कहानीकार- सन्तोष खन्ना
प्रकाशक - भारत ज्योति प्रकाशन
मूल्य - रू 250/-

हिन्दी कहानी पूरी सदी का सफ़र तय कर चुकी है। अक्सर ही कहानी को लेकर सामाजिक बदलावों और नई क्रान्तियों की घोषणा भी की जाती है, लेकिन कईयों बार इस पर सवाल भी उठे हैं और इसे कटघरे में भी खड़ा किया जाता रहा है। अपने भीतर-बाहर तमाम सवालों के जवाब ढूँढती, आगे बढ़ती हिन्दी कहानी का स्वरूप बदलता रहा है। आधुनिक हिन्दी कहानियों पर रूसी कहानियों का गहरा असर दिखाई देता है, जिसमें उसकी अच्छाईयाँ और बुराईयाँ बराबर से घुली-मिली दिखाई देती है। परन्तु अस्सी और नब्बे के दशक में कई कहानीकार ऐसे हुए हैं, जिन्होंने इस प्रभाव को पीछे छोड़ते हुए अपने ही अन्दाज़ में अपने पूरे देसीपन के साथ कहानियाँ लिखी हैं। उनकी कहानियाँ वास्तविक भारतीय जीवन के बहुत निकट हैं और उसकी प्रस्तुति भी कहानी की घटनाओं के अनुरूप है। इनमें देसी बात विदेशी ढंग से या उधार के शिल्प में ढालकर कहने की सनक नहीं है। ऐसी ही एक लेखिका हैं सन्तोष खन्ना, जो कवयित्री और संपादिका तो हैं ही, अपने समय की श्रेष्ठ कहानीकार भी हैं।

सन् 2009 में सन्तोष खन्ना का कहानी संग्रह 'आज का दुर्वासा' प्रकाशित हुआ है, जिसमें उनकी लगभग अट्ठारह छोटी-बड़ी कहानियाँ हैं। संकलन की पहली कहानी 'आज का दुर्वासा' आज के समय की, समाज की तमाम पर्तें उघाड़ती एक बेबाक कहानी है, जो आज के समय को नंगा करके, हमारे प्रगति के सारे दावों की पोल खोल के रख देती है। इस कहानी को पढ़ते हुए उदय प्रकाश की 'तिरिछ' याद जाती है। 'तिरिछ' में शहर की निर्ममता का शिकार एक भोला-भाला ग्रामीण है, पर यहाँ यह सब कुछ शहर में रहने वाले, एक ऐसे व्यक्ति के साथ बीता है, जिसका जीवन शहर में ही बीता है, पर फिर भी यह शहर, यह तन्त्र उसके लिए एक निष्ठुर और विकराल पिशाच सिद्ध होता है, जो उससे उसका नाम, घर, सम्मान, उसकी अस्मिता सब कुछ छीन लेता है, यहाँ तक कि उसकी बुद्धि, विवेक भी। सब कुछ खो चुकने के बाद भी एक बात जो उसके चरित्र में शेष रह जाती है, वह है उसका आक्रोश और वही उसे आज का दुर्वासा बना देता है। कहानी का अन्तिम वाक्य महानगरों में बसे पूरे संवेदनाहीन समाज को दिया गया उस आदमी का श्राप है, जिससे इस शहर ने उसका सब कुछ छीन लिया है। वह कहता है "तुम्हारे बच्चे तुम्हें पहचानना भूल जाएँ……"।

सन्तोष खन्ना की कहानियाँ हमारे आस-पास के जीवन में बिखरे तमाम रंगों को समेटती हैं, इसमें इतिहास, वर्तमान और कहीं-कहीं भविष्य की झाँकिया भी देखने को मिलती हैं। वह प्लॉट को बड़े सरल ढग से शुरू करके, बड़ी सहजता से बुनती हैं। कहानियाँ पढ़ते वक़्त लगता है हम कहानियाँ देख रहे हैं। पात्र आपस में ही नहीं बल्कि पाठक से भी संवाद कर रहे हैं। ऐसी ही एक कहानी है 'नास्तिक' जिसमें बड़ी सहजता से धर्म और अध्यात्म जैसे जटिल विषय की गूढ़ गुत्थियों को कहानीकार ने एक छोटी-सी कहानी में बड़े निर्दोष ढंग से सुलझाया है। अच्छी बात यह है कि कहानीकार स्वंय उपदेशक नहीं है। वह स्वंय पाठक के साथ अपनी समस्याओं से जूझ रहा है। वह स्वंय भी कई अनसुलझे सवालों के झुरमुट में खड़ा है, और यही बात सन्तोष खन्ना को अन्य कहानीकारों से अलग करती है।

'पंसेरी' संग्रह की एक और छोटी कहानी है, जो स्त्री शोषण की व्यथा को एवं समाज द्वारा स्त्री को वस्तु के रूप में देखे जाने की वृत्ति को दर्शाती है।

'प्रायश्चित' कहानी में संतोष ने कथा की एक नई दहलीज़ बनाई हैवह कथा के विराट विस्तार को अपने में समेटे हुए है, जिसकी अलग से चर्चा की जानी चाहिए।

'बेबसी', 'साझेदारी', 'बिना टिकिट' और बूट पालिश संग्रह की अन्य अच्छी कहानियाँ हैं।

सन्तोष खन्ना की हरेक कहानी गहरे सामाजिक सरोकारों की कहानी है। हरेक कहानी सरल ढंग से कही गई परन्तु गहन संवेदनाओं और जटिल मनोवैज्ञानिक पहलुओं को उजागर करती, मानवीय मूल्यों का पुनर्मूल्यांकन करती है। संग्रह की कहानियाँ स्वतंत्र रूप से एवं विस्तार से एक साहित्यिक चर्चा की माँग करती हैं। अवसर एवं मंच मिलने पर ऐसा अवश्य संभव होगा। कहानियों के भीतर छुपी लेखिका की संवेदनाएँ पाठक के भीतर गहरे में अपनी पैंठ बनाने और अपनी छाप छोड़ने में सफ़ल होंगी, इसी विश्वास के साथ। सन्तोष जी को संग्रह के लिए शुभकामनाएँ।

- विवेक मिश्र -
मोब: 9810853128

No comments: