Nov 20, 2010

संदेश की कविता - त्रिधा














पुस्तक नाम - 'त्रिधा'
विधा - कविता संग्रह
रचनाकार - डॉ. अनामिका रिछारिया
प्रकाशक - जे.एम.डी पब्लिकेशन, दिल्ली
पुस्तक समीक्षक - दिनेश बैस, 3 गुरूद्वारा, नगरा, झांसी - 284003 (0510-2311015/0800-4271503)
प्रति सम्पर्क - डॉ. अनामिका रिछारिया, B-3/4, तालपुरा योजना, आवास विकास, कानपुर रोड, झांसी(उ.प्र)


आश्चर्य होता है कि स्प्रिट, क्लोरोफार्म की उबकाई पैदा करने वाली गंध में रची-बसी, ख़ून-मवाद, बास मारते घावों का दिन रात सान्निध्य और

"जल रहा है शहर, आग क्यों दिखती नहीं,
मन सुलगते हैं और धुआं क्यों उठता नहीं"

जैसी संवेदनशील पंक्तियां लिखना। एक डॉक्टर के साथ कवियित्री बन जाने की दुर्घटना कैसे हो गई। लेकिन विश्वदि व्याकरणाचार्य स्व.पंडित कामता प्रसाद की पौत्री तथा स्वनाम धन्य भाषाविद् डॉ. राजेश्वर गुरू की पुत्री डॉ. अनामिका रिछारिया को साहित्यिक जीन्स संस्कार से ही मिले थे। उन्हें साहित्यकार ही बनना था। डॉक्टर बनना एक संयोग हो सकता था। यह जन्मना संस्कार इतने प्रबल थे कि बाद में झांसी के प्रमुख राजनैतिक परिवार में व्याहने के बाद राजनैतिक परिवेश भी उन्हें संक्रमित नहीं कर पाया। पेशे से वे डॉक्टर रहीं। मुख्य चिकित्सा अधीक्षिका तक का दायित्व सम्भाला। कर्म से कहानी-कविता-चित्रकला में स्वयं को आज़माती रहीं।

'त्रिधा' डॉ. अनामिका रिछारिया का संग्रह नहीं है। पत्र-पत्रिकाओं-रेडिओ पर दस्तक देने के साथ-साथ पूर्व में भी उनके कथा और काव्य संग्रह आ चुके हैं।

अन्ठान्वे कवितायें डॉ. अनामिका के संग्रह 'त्रिधा' में संग्रहित हैं। उनकी रचनाओं में मुक्त प्रवाह है। विषय विशेष के प्रति वे बाध्य नहीं हैं। उनकी कविताओं में बचपन की किलकारी है तो यौवन की अतृप्त प्यास भी है और आनेवाली पीढ़ी के प्रति संवेदनशील विश्वास भी है। उनके विभिन्न शेड्स देखिए -

'बोल दिया अंशु ने रेडी/ढूढ़ रहे अंशु को डैडी/ढूढ़ लिया बिस्तर के नीचे/
ढूढ़ा अल्मारी के पीछे/ ढूढ़ लिया है बाग़-बग़ीचे/ छुपी हुई थी अंशु रानी, मम्मी के पलकों के पीछे'

'तुम मेरे सपने हो/ पर तुम्हारा मौन मुझे तुम तक पहुँचने नहीं देता'

'दिल का कोना ख़ाली है, दर्द वहीं पर होता है,
देता है आशीष तुम्हें, पर मन चुपके से रोता है'

डॉ. अनामिका रिछारिया की रचनाओं में निराशा-हताशा कम ही मिलती है। उनमें उर्जा का स्तर बहुत ऊँचा है। सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ चलती हैं वे -

'चाहती हूँ बनना शिखा दीप की/ या मोती बनूं विश्व की दीप की
रूढ़िओं के तम को हटाती चलूं/ नई उमंगें मन में जगाती चलूँ'

डॉ. अनामिका रिछारिया ने बहुत हल्के-फुल्के मूड की कवितायें भी लिखी हैं -

'सासू ऐसी चाहिये, जैसा सूप सुभाय
दहेज-दहेज तो रख लहे, बहू को देहि जलाए'
या
'पैसा इतना खाइये, जितना लेय पचाय,
बीवी हार में ख़ुश रहे, छापा न पड़ पाये'

'अर्ज़ी लिख-लिख जग मुआ, अर्ज़ी पढ़े न कोय
ढाई दिना हड़ताल की करे, सो कारज होय'

सामाजिक सरोकारों से अनामिका रिछारिया मनोयोग से जुड़ी हैं। कविता लिखना उनके लिए कला प्रदर्शन नहीं है बल्कि संदेश पहुँचाने का माध्यम है। शायद यही कारण है कि उनकी रचनाओं में पॉलीथिन, स्त्री शिक्षा, दहेज दमन, कन्या भ्रूण हत्या, पर्यावरण संरक्षण, जन संरक्षण, पोलिओ उन्मूलन, परिवार नियोजन, एड्स, टीकाकरण जैसे विषयों पर भी सरल-सहज और कभी-कभी स्लोगन के स्तर पर भी कवितायें मिलती हैं।

डॉ. अनामिका रिछारिया कहानियाँ भी लिखती हैं। बुन्देली परिवेश में पनपी उनकी कुछ कहानियाँ तो बेहद संवेदनशील हैं। मुझे लगता है कि कहानियों में वे अपने आपको ज़्यादा बेहतर ढंग से अभिव्यक्त कर पाती हैं।

- दिनेश बैस -

www.vivechna.blogspot.com

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