“180 डिग्री का मोड़” - काव्य संग्रह का लोकार्पण 27/05/2011
भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद के तत्वावधान में आज़ाद भवन सभागार में लेखिका एवं कवयित्री पुष्पलता शर्मा पुष्पी द्वारा लिखित एवं हिन्दी अकादमी दिल्ली के सहयोग से प्रकाशित प्रथम काव्य संग्रह 180 डिग्री का मोड़ का लोकार्पण हास्य और व्यंग्य कवि श्री सुरेन्द्र शर्मा तथा आई सी सी आर के उप महानिदेशक श्री अनवर हलीम के कर-कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ ।
समारोह में कवयित्री पुष्पलता शर्मा ने अपनी रचनाधर्मिता को विवशता और आक्रोश इन दो सिरों के बीच जीवन्त बताते हुए कहा कि जहॉं उनकी कविताऍं उनकी विवशता, पीड़ा एवं प्रश्न हैं वहीं उनके लेख विवशता से उपजा आक्रोश है । पुष्पलता ने अपने संग्रह से नदी, मार्च की बारिश, मुर्दे, अस्तित्व की कील, एंटीडोट और 180 डिग्री का मोड़ आदि का पाठ किया जिसे श्रोताओं ने काफी सराहा ।
किताब पर अपने विचार व्यक्त करते हुए मुख्य अतिथि श्री अनवर हलीम ने कवयित्री की प्रतिभा का जिक्र करते हुए कविताओं के व्यापक फलक और उनके साहस की सराहना और संग्रह के शीर्षक की सार्थकता की प्रशंसा की ।
विशिष्ट अतिथि डॉ. लक्ष्मीशंकर वाजपेयी ने कविताओं के विषय-वैविध्य का जि़क्र करते हुए कवयित्री की अंग्रेजी़ शब्दों से युक्त व्यंग्य कविता हिन्दी डे सेलेब्रेशन की ओर इंगित किया और छोटी के साथ ही बड़ी कविताओं के लेखन की क्षमता की प्रशंसा करते हुए संग्रह की देह हो तुम कविता का जिक्र किया । पुष्पलता की कविताओं में प्रतीकात्मकता की ओर इशारा करते हुए उन्होंने संग्रह से कुछ कविताओं के उद्धरण भी दिए जैसे –
पुकारता रहा हूँ किनारे खड़े माझी को
उसी से पूछ लो मेरे, डूबने की वजह क्या है*
चिर सत्य के दर्पण में जब भी देखा अक्स
जि़न्दगी की तसवीर कहीं, दरक गई-सी लगती है*
समारोह के अध्यक्ष श्री सुरेन्द्र शर्मा ने कवयित्री की कविताओं में मूल्यबोध, संवेदनशीलता, कविताओं के व्यापक कैनवास की चर्चा करते हुए उनके लेखों की भी प्रशंसा की और कहा कि कविता एवं लेख दोनों का साथ में लेखन बेहद कठिन काम है क्योंकि जहॉं लेख में बूँद को सागर तक फैलाना होता है वहीं कविता में सागर को बूँद तक लाना होता है और पुष्पलता ने यह काम बख़ूबी किया है । समारोह में उपस्थित लोगों ने जहॉं हास्य एवं व्यंग्य कवि सुरेन्द्र शर्मा की हास्योक्तियों का भरपूर आनन्द लिया वहीं कवयित्री की सबसे पहली कविता नदी की काफी सराहना की-
ग़म ये नहीं कि, नदी, सागर से मिलती है,
गम ये है कि नदी सागर में गिरती है
कैसा छलावा दिया भोली नदिया को
ऐ सागर तूने,
मिलन की आस, दोनों में है
पर पतन, नदी ही सहती है ।
डॉ. विवेक गौतम के संचालन में सम्पन्न समारोह में लेखिका का परिचय आकाशवाणी की श्रीमती चंद्रिका जोशी ने प्रस्तुत किया जबकि धन्यवाद ज्ञापन श्री दुर्ग विजय सिंह ने किया ।
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