विधा- कहानी
प्रकाशक- नेहा प्रकाशन
मूल्य- 125/-
हमारी ज़िन्दगी के पल एक-दूसरे से इस पेचीदग़ी से गुँथे हुए होते हैं कि उन्हें एक दूसरे से अलग कर पाना लगभग नामुमकिन जान पड़ता है। यह ऐसे ही है जैसे किसी वृत का आरंभ बिन्दु तलाशना! कहानीकार अपने जीवन की घटनाओं को एक दूसरे से विलगाते हुए उनका आदि तथा अंत तो ढूंढता ही है साथ ही उस पूरे कालखण्ड को इस सलीक़े से बयां करता है कि उसमें से भूत तथा भविष्य का हस्तक्षेप समाप्त हो जाता है।
कहानी कहने की यह बारीक़ी और शालीनता विवेक मिश्र की कहानियों में बार-बार दिखाई देती है। हनियां तथा अन्य कहानियाँ कुल नौ कहानियों की एक ऐसी पुस्तक है जिसमें सभी कहानियाँ लेखक के जीवन में घटित घटनाएँ तो हैं, लेकिन कोई भी एक घटना किसी भी दूसरी घटना से न तो प्रभावित है न सम्बध्द ही!
इन कहानियों को पढ़कर स्पष्ट होता है कि लेखक ने कृष्ण का सा जीवन जीने में विश्वास किया है। ऐसा जीवन जिसमें मथुरा, गोकुल, द्वारिका और कुरुक्षेत्र को परस्पर घालमेल कर पाना भी मुमकिन नहीं है और यह भी नकार पाना असंभव है कि इन चारों घटनाक्रमों का केन्द्र स्वयं कृष्ण ही हैं।
पिताजी की मृत्यु के अति संवेदनशील पल को पूरी गहनता से जीकर लेखक ने इस अंदाज़ में बयान किया है कि गुब्बारा कहानी को पढ़ते हुए कई बार पाठक इस पल को जी लेते हैं।
गमले कहानी में प्रकृति का रूपक लेकर किसी अपने का शब्दचित्र गढ़ने में पूरी तरह सफल हुए विवेक ने यह भी सिध्द किया है कि अच्छा लेखन बहुत लम्बा हो, यह आवश्यक नहीं है।
तीसरी कहानी है हनियां। लेखक ने साहित्य की सौम्यता को बनाए रखते हुए 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली मानसिकता पर 'सत्यमेव जयते' की नीति का प्रहार किया है। इस बात से इनक़ार नहीं किया जा सकता कि लेखक ने हनियां के चरित्र को न केवल अमर किया बल्क़ि तीन सिर वाले उस प्रेत का चित्र भी सार्वजनिक किया है जिसका जन्म इसी समाज से रोज़ाना होता है।
शब्दों से चित्र कैसे बनाया जाता है इसका श्रेष्ठ उदाहरण है गोष्ठी कहानी। इस कहानी में बुंदेलखंड के गली-गलियारों और कस्बाई जीवन की तस्वीर तो है ही साथ ही साथ समाज में सड़ रही संवेदनाओं की लाश का पंचनामा भी मौजूद है।
बड्डे गुरु और लोकतंत्र कहानी न होकर एक शालीन व्यंग्य है लोकतंत्र की वर्तमान दशा और सादगी के उपहास पर। दुर्गा में बचपन और धार्मिक आडम्बर दोनों की तस्वीर लेखक ने बखूबी उतारी है।
तितली कहानी मूलत: कहानी मात्र नहीं है, यह एक ऐसी आचार संहिता है जो महानगरीय जीवन जीने वाली और कैशोर्य के पायदान पर खड़ी हर लड़की को पढ़ लेनी चाहिए। मन की कोमल भावनाओं के नाम पर तन का कितना भयानक शोषण किया जा सकता है इसकी प्रतिध्वनि तितली कहानी में स्पष्ट सुनाई देती है। इसके साथ ही इस कहानी में एक और ख़ास बात यह है कि इसमें यह भी इंगित किया गया है कि नारी सशक्तिकरण के सारे नारे और नारी सशक्तीकरण के सारे दावे कितने खोखले और दिखावटी हैं इसका अहसास तभी होता है जब व्यक्तिगत स्तर पर इस विचार से जूझने का अवसर आए। इसके अतिरिक्त एक और महत्तवपूर्ण पहलू जो इस कहानी में नए सिरे से उजागर होता है वह यह है कि जब-जब सीता मर्यादा की लक्ष्मण रेखा पार करेगी तब-तब उसे रावण द्वारा अपहृत होना ही पड़ेगा।
इसके बाद की दोनों कहानियाँ, और चाहे जो भी कुछ हों पर उन्हें कहानी नहीं कहा जा सकता। हाँ इतना अवश्य है कि वे पुस्तक की अन्य कहानियों से कुछ अधिक ही सशक्त हैं। सृजन को जब भ्रष्टतंत्र की पेचीदगियों से जूझना पड़ता है तो उसकी कोमल पाँखुरियाँ कैसे मसली जाती हैं इसकी भयावह तस्वीर को लेखक ने एक लेखक की डायरी नामक कहानी में उकेरी है और आत्मकथ्य को आत्मकथ्य नामक 'कहानी' में ही लिखकर लेखक ने एक नया प्रयोग किया है, जो उनकी रचनाधर्मिता का गवाह भी है।
कुल मिलाकर पूरी पुस्तक पठनीय होने के साथ-साथ विचारणीय भी है।
प्रकाशकीय स्तर पर कुछ वर्तनी संबंधी अशुध्दियाँ हैं, जिनसे कहीं भी अवरोध तो उत्पन्न नहीं होता लेकिन उन्हें नज़रंदाज़ किया जाना भी संभव नहीं है। साज-सज्जा की दृष्टि से पुस्तक आकर्षक है और आवरण-पृष्ठ उतना ही सादा है जितनी विवेक मिश्र की कहानियाँ, हाँ कहानियों की गहन अंतरात्मा की तरह आवरण पृष्ठ पर भी एक गंभीर कलाकृति अवश्य सम्मिलित की गई है, जो पुस्तक के पूरे कथ्य को अपने में समेटने का प्रयास करती जान पड़ती है।
प्रकाशक- नेहा प्रकाशन
मूल्य- 125/-
हमारी ज़िन्दगी के पल एक-दूसरे से इस पेचीदग़ी से गुँथे हुए होते हैं कि उन्हें एक दूसरे से अलग कर पाना लगभग नामुमकिन जान पड़ता है। यह ऐसे ही है जैसे किसी वृत का आरंभ बिन्दु तलाशना! कहानीकार अपने जीवन की घटनाओं को एक दूसरे से विलगाते हुए उनका आदि तथा अंत तो ढूंढता ही है साथ ही उस पूरे कालखण्ड को इस सलीक़े से बयां करता है कि उसमें से भूत तथा भविष्य का हस्तक्षेप समाप्त हो जाता है।
कहानी कहने की यह बारीक़ी और शालीनता विवेक मिश्र की कहानियों में बार-बार दिखाई देती है। हनियां तथा अन्य कहानियाँ कुल नौ कहानियों की एक ऐसी पुस्तक है जिसमें सभी कहानियाँ लेखक के जीवन में घटित घटनाएँ तो हैं, लेकिन कोई भी एक घटना किसी भी दूसरी घटना से न तो प्रभावित है न सम्बध्द ही!
इन कहानियों को पढ़कर स्पष्ट होता है कि लेखक ने कृष्ण का सा जीवन जीने में विश्वास किया है। ऐसा जीवन जिसमें मथुरा, गोकुल, द्वारिका और कुरुक्षेत्र को परस्पर घालमेल कर पाना भी मुमकिन नहीं है और यह भी नकार पाना असंभव है कि इन चारों घटनाक्रमों का केन्द्र स्वयं कृष्ण ही हैं।
पिताजी की मृत्यु के अति संवेदनशील पल को पूरी गहनता से जीकर लेखक ने इस अंदाज़ में बयान किया है कि गुब्बारा कहानी को पढ़ते हुए कई बार पाठक इस पल को जी लेते हैं।
गमले कहानी में प्रकृति का रूपक लेकर किसी अपने का शब्दचित्र गढ़ने में पूरी तरह सफल हुए विवेक ने यह भी सिध्द किया है कि अच्छा लेखन बहुत लम्बा हो, यह आवश्यक नहीं है।
तीसरी कहानी है हनियां। लेखक ने साहित्य की सौम्यता को बनाए रखते हुए 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली मानसिकता पर 'सत्यमेव जयते' की नीति का प्रहार किया है। इस बात से इनक़ार नहीं किया जा सकता कि लेखक ने हनियां के चरित्र को न केवल अमर किया बल्क़ि तीन सिर वाले उस प्रेत का चित्र भी सार्वजनिक किया है जिसका जन्म इसी समाज से रोज़ाना होता है।
शब्दों से चित्र कैसे बनाया जाता है इसका श्रेष्ठ उदाहरण है गोष्ठी कहानी। इस कहानी में बुंदेलखंड के गली-गलियारों और कस्बाई जीवन की तस्वीर तो है ही साथ ही साथ समाज में सड़ रही संवेदनाओं की लाश का पंचनामा भी मौजूद है।
बड्डे गुरु और लोकतंत्र कहानी न होकर एक शालीन व्यंग्य है लोकतंत्र की वर्तमान दशा और सादगी के उपहास पर। दुर्गा में बचपन और धार्मिक आडम्बर दोनों की तस्वीर लेखक ने बखूबी उतारी है।
तितली कहानी मूलत: कहानी मात्र नहीं है, यह एक ऐसी आचार संहिता है जो महानगरीय जीवन जीने वाली और कैशोर्य के पायदान पर खड़ी हर लड़की को पढ़ लेनी चाहिए। मन की कोमल भावनाओं के नाम पर तन का कितना भयानक शोषण किया जा सकता है इसकी प्रतिध्वनि तितली कहानी में स्पष्ट सुनाई देती है। इसके साथ ही इस कहानी में एक और ख़ास बात यह है कि इसमें यह भी इंगित किया गया है कि नारी सशक्तिकरण के सारे नारे और नारी सशक्तीकरण के सारे दावे कितने खोखले और दिखावटी हैं इसका अहसास तभी होता है जब व्यक्तिगत स्तर पर इस विचार से जूझने का अवसर आए। इसके अतिरिक्त एक और महत्तवपूर्ण पहलू जो इस कहानी में नए सिरे से उजागर होता है वह यह है कि जब-जब सीता मर्यादा की लक्ष्मण रेखा पार करेगी तब-तब उसे रावण द्वारा अपहृत होना ही पड़ेगा।
इसके बाद की दोनों कहानियाँ, और चाहे जो भी कुछ हों पर उन्हें कहानी नहीं कहा जा सकता। हाँ इतना अवश्य है कि वे पुस्तक की अन्य कहानियों से कुछ अधिक ही सशक्त हैं। सृजन को जब भ्रष्टतंत्र की पेचीदगियों से जूझना पड़ता है तो उसकी कोमल पाँखुरियाँ कैसे मसली जाती हैं इसकी भयावह तस्वीर को लेखक ने एक लेखक की डायरी नामक कहानी में उकेरी है और आत्मकथ्य को आत्मकथ्य नामक 'कहानी' में ही लिखकर लेखक ने एक नया प्रयोग किया है, जो उनकी रचनाधर्मिता का गवाह भी है।
कुल मिलाकर पूरी पुस्तक पठनीय होने के साथ-साथ विचारणीय भी है।
प्रकाशकीय स्तर पर कुछ वर्तनी संबंधी अशुध्दियाँ हैं, जिनसे कहीं भी अवरोध तो उत्पन्न नहीं होता लेकिन उन्हें नज़रंदाज़ किया जाना भी संभव नहीं है। साज-सज्जा की दृष्टि से पुस्तक आकर्षक है और आवरण-पृष्ठ उतना ही सादा है जितनी विवेक मिश्र की कहानियाँ, हाँ कहानियों की गहन अंतरात्मा की तरह आवरण पृष्ठ पर भी एक गंभीर कलाकृति अवश्य सम्मिलित की गई है, जो पुस्तक के पूरे कथ्य को अपने में समेटने का प्रयास करती जान पड़ती है।
-चिराग़ जैन
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