कविता संग्रह - ‘वसंत तुम कहाँ हो’
कवियित्रि - स्नेह सुधा नवल
प्रकाशक - अमृत प्रकाशन
मूल्य - रु १००/-
स्नेह सुधा नवल का काव्य संग्रह ‘वसंत तुम कहाँ हो’ की कविताएँ एक विस्तृत जीवन में समेटे गए गहन एंव नितान्त निजी अनुभवों, स्मृतियों एंव सघर्षों की कविताएँ हैं। इन कविताओं का संसार स्त्री मन के उन सघर्षों की ओर इशारा करता है, जहाँ शिक्षित, सुसंस्कृत मध्यम वर्ग की महिलाओं के जीवन में बाहर से सबकुछ सामान्य, ख़ुशहाल एंव पूर्ण दिखता है, परन्तु इस रूपहले आवरण के पीछे बहुत कुछ अप्रिय, अशोभनीय एंव असामान्य छुपा रहता है जिसे स्वंय जानने एंव अनुभव करने के बाद भी उसे ढक कर, ऊपर से मुस्कुराते रहना ही नारी जीवन की विवशता होती है।
तुम पुष्प हो माना/अपने मकरन्द में मस्त………………
पर क्यों भूल गए तुम/कि तुम फूल हो
तो मैं काँटा नहीं/तुम्हारी ख़ुशबू हूँ
जिसे तुमने अपने संग/कभी बाँटा नहीं
_____________
उगाओ जाओ तुम काँटे
मैँ फूल ही उगाऊँगी ……………
मैं समेट कर सब अपनी अंजुरी से
भर लूँगी अपना आँचल ……………
…… यही तो दिया है तुमने मन से ……
सब कुछ पा कर भी जहाँ एक कभी न भरने वाली रिक्तता, चँहु ओर फैले कोलाहल के बीच एक कभी न टूटने वाले सन्नाटे से घिरी मनोदशा में सबके बीच खड़ी होकर सबको बहुत दूर से देखती हुई स्नेह सुधा की कवियित्री जब अतीत की ओर हाथ बढ़ाती है तो मन में अभी तक संजोकर रखी स्मृतियों से कुछ ऐसे पल झरने लगते हैं, जो बहुत सुखद हैं पर आज की आपा-धापी में उन्हें पुनः पाना संभव नहीं बल्कि अब मात्र उनकी कल्पना ही की जा सकती है –
पर क्यों भूल गए तुम/कि तुम फूल हो
तो मैं काँटा नहीं/तुम्हारी ख़ुशबू हूँ
जिसे तुमने अपने संग/कभी बाँटा नहीं
_____________
उगाओ जाओ तुम काँटे
मैँ फूल ही उगाऊँगी ……………
मैं समेट कर सब अपनी अंजुरी से
भर लूँगी अपना आँचल ……………
…… यही तो दिया है तुमने मन से ……
सब कुछ पा कर भी जहाँ एक कभी न भरने वाली रिक्तता, चँहु ओर फैले कोलाहल के बीच एक कभी न टूटने वाले सन्नाटे से घिरी मनोदशा में सबके बीच खड़ी होकर सबको बहुत दूर से देखती हुई स्नेह सुधा की कवियित्री जब अतीत की ओर हाथ बढ़ाती है तो मन में अभी तक संजोकर रखी स्मृतियों से कुछ ऐसे पल झरने लगते हैं, जो बहुत सुखद हैं पर आज की आपा-धापी में उन्हें पुनः पाना संभव नहीं बल्कि अब मात्र उनकी कल्पना ही की जा सकती है –
उन खण्डहरों की याद
अभी भी ताज़ा बनी है
आज भी जब याद
उस दिन की आती है
मैं अपने ही एक हाथ से
दूसरे को दबा
तुम्हारी कल्पना किया करती हूँ।
स्नेह सुधा कि कविताओं में नारी संघर्ष सतत झलकता है पर वह पुरूष के विरूद्ध नहीं खड़ा है, वह नारी के आगे बढ़ने को, उसके पुरूष हो जाने या सत्ता पलट करने के संघर्ष के रूप में सामने नहीं आता बल्कि वह नारी के अपने में निहित पूरी शक्तियों के साथ, अपने संस्कारों के साथ सामाजिक, पारिवारिक और व्यैक्तिक स्तर पर मज़बूती से खड़े रहने का पक्षधर है।
नरेन्द्र मोहन उनकी कविताओं के बारे में लिखते हैं कि इन कविताओं में बिना किसी पूर्वाग्रह के अन्तर्प्रवेश करना चाहिए। संस्कार सम्पन्न, संघर्षशील नारी के पक्ष से लिखी गई ये कविताएँ विभिन्न परम्परागत प्रतीकों के माध्यम से स्त्री-पुरूष के सम्बन्धों का कथन करती हैं। वे नए ज़माने में नारी अस्मिता के नए रूपों की टोह लेती हैं। ये कविताएँ बुद्धी और भावना के द्वन्द में फँसी नारी को, उस ख़ुश्बू की ओर ले जाती हैं, जिसे पुरूष ने अपने संग कभी नहीं बाँटा।
इस संग्रह की कविताएँ अतीत की झाँकियाँ दिखाती, पीछे छूटे पारिवारिक, सामाजिक मूल्यों को, स्मृतियों को समेटती, संजोती और उन्हें संवेदना के धागे में पिरोती चलती हैं। परन्तु कहीं-कहीं भावातिरेक में वे अपनी निजता के दायरे में सिमटकर किसी पुरानी डायरी के वो अधूरे पन्ने बनकर उभरती हैं, जहाँ उन्हें एक निजी अनुभव से निकल कविता बनने का सफ़र अभी करना बाक़ी है। संकलन में अलग-अलग समय पर लिखी गई कविताएँ हैं, जिनके चुनाव करने में थोड़ा और ध्यान दिया जा सकता था, क्योंकि यह संग्रह उनकी समस्त कविताओं का संकलन नहीं है। पर जैसा कि संग्रह की भूमिका में नरेन्द्र मोहन लिखते हैं कि इस संग्रह की कविताओं को मानों/प्रतिमानों के आग्रहों से मुक्त होकर देखा-पढ़ा जाना चाहिये और सीधे-सीधे इन कविताओं में संस्कार, स्मृति और संवेदना की जो त्रिधारा प्रवाहित है, उसका आकलन किया जाना चाहिए।
यह सही है कि उसी प्रकाश में ‘वसंत तुम कहाँ हो’ को पढ़ा जाए पर स्नेह सुधा जिस पृष्ठभूमि से हैं, उनका जो कार्यक्षेत्र है और उस सबके साथ हरीश नवल जी जैसे सूक्ष्म एंव मौलिक दृष्टि रखने वाले साहित्यकार के संग एंव सानिध्य से बड़ी उम्मीदें बँधती है, और एक आशा जमती है कि ‘वसंत तुम कहाँ हो’ एक प्रश्न नहीं एक खोज बनेगा और जल्दी ही स्नेह सुधा नवल वसंत को खोजकर अपनी अँजुरी में भरकर अपने अगले संग्रह में लाएँगी।
- विवेक मिश्र -
स्नेह सुधा नवल दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलत राम कालेज के हिंदी विभाग में वरिष्ठ एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। उन्हें कबीर सेवा सम्मान सहित कई सम्मानों एंव पुरस्कारों से विभुषित किया जा चुका है।
अभी भी ताज़ा बनी है
आज भी जब याद
उस दिन की आती है
मैं अपने ही एक हाथ से
दूसरे को दबा
तुम्हारी कल्पना किया करती हूँ।
स्नेह सुधा कि कविताओं में नारी संघर्ष सतत झलकता है पर वह पुरूष के विरूद्ध नहीं खड़ा है, वह नारी के आगे बढ़ने को, उसके पुरूष हो जाने या सत्ता पलट करने के संघर्ष के रूप में सामने नहीं आता बल्कि वह नारी के अपने में निहित पूरी शक्तियों के साथ, अपने संस्कारों के साथ सामाजिक, पारिवारिक और व्यैक्तिक स्तर पर मज़बूती से खड़े रहने का पक्षधर है।
नरेन्द्र मोहन उनकी कविताओं के बारे में लिखते हैं कि इन कविताओं में बिना किसी पूर्वाग्रह के अन्तर्प्रवेश करना चाहिए। संस्कार सम्पन्न, संघर्षशील नारी के पक्ष से लिखी गई ये कविताएँ विभिन्न परम्परागत प्रतीकों के माध्यम से स्त्री-पुरूष के सम्बन्धों का कथन करती हैं। वे नए ज़माने में नारी अस्मिता के नए रूपों की टोह लेती हैं। ये कविताएँ बुद्धी और भावना के द्वन्द में फँसी नारी को, उस ख़ुश्बू की ओर ले जाती हैं, जिसे पुरूष ने अपने संग कभी नहीं बाँटा।
इस संग्रह की कविताएँ अतीत की झाँकियाँ दिखाती, पीछे छूटे पारिवारिक, सामाजिक मूल्यों को, स्मृतियों को समेटती, संजोती और उन्हें संवेदना के धागे में पिरोती चलती हैं। परन्तु कहीं-कहीं भावातिरेक में वे अपनी निजता के दायरे में सिमटकर किसी पुरानी डायरी के वो अधूरे पन्ने बनकर उभरती हैं, जहाँ उन्हें एक निजी अनुभव से निकल कविता बनने का सफ़र अभी करना बाक़ी है। संकलन में अलग-अलग समय पर लिखी गई कविताएँ हैं, जिनके चुनाव करने में थोड़ा और ध्यान दिया जा सकता था, क्योंकि यह संग्रह उनकी समस्त कविताओं का संकलन नहीं है। पर जैसा कि संग्रह की भूमिका में नरेन्द्र मोहन लिखते हैं कि इस संग्रह की कविताओं को मानों/प्रतिमानों के आग्रहों से मुक्त होकर देखा-पढ़ा जाना चाहिये और सीधे-सीधे इन कविताओं में संस्कार, स्मृति और संवेदना की जो त्रिधारा प्रवाहित है, उसका आकलन किया जाना चाहिए।
यह सही है कि उसी प्रकाश में ‘वसंत तुम कहाँ हो’ को पढ़ा जाए पर स्नेह सुधा जिस पृष्ठभूमि से हैं, उनका जो कार्यक्षेत्र है और उस सबके साथ हरीश नवल जी जैसे सूक्ष्म एंव मौलिक दृष्टि रखने वाले साहित्यकार के संग एंव सानिध्य से बड़ी उम्मीदें बँधती है, और एक आशा जमती है कि ‘वसंत तुम कहाँ हो’ एक प्रश्न नहीं एक खोज बनेगा और जल्दी ही स्नेह सुधा नवल वसंत को खोजकर अपनी अँजुरी में भरकर अपने अगले संग्रह में लाएँगी।
- विवेक मिश्र -
स्नेह सुधा नवल दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलत राम कालेज के हिंदी विभाग में वरिष्ठ एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। उन्हें कबीर सेवा सम्मान सहित कई सम्मानों एंव पुरस्कारों से विभुषित किया जा चुका है।
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