Jan 20, 2010

दिल में उतर जाने वाला शायर, ‘ज़र्फ़’ देहलवी

जहाँ की भीड़ से बचकर जब आता हूँ क़रीब अपने,
ख़ुद अपनी ही ग़ज़ल होता हूँ, ख़ुद पुरसाज़ होता हूँ।

यह सच ही है कि ग़ज़ल का फ़लक फैले तो जहाँ ढक ले और सिमटे तो किसी की आँख के आसूँ में उतर आए। ग़ज़ल उर्दु शायरी की संस्कृति का ढाँचा है। ग़ज़ल शायरी नहीं तहज़ीब है। इसलिए ग़ज़ल पढ़कर किसी की शायरी का ही अँदाज़ा नहीँ होता बल्कि उसके भीतर के इंसान का भी अंदाज़ा होता है। उसकी अंदरूनी शख़्सियत का भी अंदाज़ा होता है। ग़ालिब ने कहा है कि कोई अच्छा इंसान बने बिना, अच्छा शायर नहीं हो सकता। आर बी एल सक्सेना जिन्हें शायरी की दुनिया में ‘ज़र्फ़ देहलवी’ के नाम जाना जाता है। उनके बारे में यह बात बड़े भरोसे के साथ कही जा सकती है कि उनकी ग़ज़लें उनकी शख़्सियत का आईना हैं। उनकी ग़ज़लों की लय, उनका तरन्नुम एक भंवर की तरह पढ़ने-सुनने वालों को अपने भीतर खींच लेती है। कोई भी उन्हें सुनकर उनमें डूबे बिना नहीं रह सकता।

नई फ़िज़ा है नए गीत सुनाने होंगे,
सभी को वक़्त के दस्तूर निभाने होंगे।
‘ज़र्फ़’ ईमान बचाता था आदमी को कभी,
अब आदमी को ख़ुद ईमान बचाने होंगे।

‘ज़र्फ़’ देहलवी की शायरी महज़ शायरी नहीं, ज़िंदगी के ऐसे बेबाक बयान हैं, जो अंधेरे में बिजली से तड़कते हैं और बहुत कुछ अनायास ही नज़र आ जाता है।

आदमी लाख अहले इश्क़ सही,
आदमी बेवफ़ा भी होता है।
ज़िंदगी एक खुली किताब सी है,
इस में पर कुछ छुपा भी होता है।

‘ज़र्फ़’ देहलवी की शायरी में ग़ज़ल के लिहाज़ से वे सारी ख़ूबियाँ हैं, जिनकी ग़ज़ल कहने के लिए और उसके शेरों को आम आदमी की ज़िंदगी से जोड़ने के लिए उसमें होनी चाहिए।
उनकी नफ़ीस ज़बान , ढबदार कहन, परतदारी, मौजूदा हालात के अहम मुद्दों की गहरी जानकारी और कहने की ईमानदारी कुछ ऐसी बातें हैं जो ‘ज़र्फ़’ साहब को ग़ज़ल की दुनिया में एक अलग जगह देती है। उनकी बहुत आम और सहज लगनेवाली ग़ज़लों में कहीं बहुत गहरे में कई पर्तों के नीचे कई अलग-अलग मायने छुपे होते हैं, जिन्हें बार-बार सुनने-पढ़ने पर ही समझा जा सकता है।

इक ख़ामोशी हर जगह तारी है यूँ,
हर तरफ़ आवाज़ ही आवाज़ है।
बरहमी है क्यूँ नुमाया हर जगह,
क्या ज़मीं से आसमां नाराज़ है।

ग़ज़ल में जिस नाज़ुक अंदाज़ में अपनी बात कहने का चलन है ‘ज़र्फ़’ साहब उसे बरक़रार रखते हैं। गोया ग़ज़ल ही ‘ज़र्फ़’ देहलवी की माशूक है, इसलिए वह कड़वी बातें भी इस अदा से कहते हैं कि ग़ज़ल को कहीं चोट न पहुँचे।
आज ग़ज़ल की परम्परा को, उसके अंदाज़े बयाँ को जो लोग दिल से जीते हैं, जिन्होंने उस विधा को बहुत कुछ दिया उनमें ‘ज़र्फ़’ ‘देहलवी एक बहुत अहम नाम है। ‘ज़र्फ़’ देहलवी ने रौशनी में आने के लिए ग़ज़ल नहीं कही, बल्कि अंधेरा मिटाने के लिए ग़ज़ल कही हैं। यह फ़र्क़ उनकी शायरी पढ़ने-सुनने वालों को साफ़ दिखता है।

उठी है आतिशे बरहम कहीं से,
ख़फ़ा है आसमां शायद ज़मीं से।
हुई है इस क़दर रौशन ये दुनिया,
कि डर लगता है अब इस रौशनी से।

‘ज़र्फ़’ देहलवी की शायरी उस समय की शायरी है, जब ख़ुद को ग़ज़लगो कहने वाले लोग बार-बार कुछ नया कर दिखाने का दावा करते हैं पर अक्सर पुराने ढोल पीटते, जबरन काफ़िए भिड़ाते, अपनी जगह बनाने की जल्दी में नज़र आते हैं। वहीं ‘ज़र्फ़’ पूरी तसल्ली, पूरे इत्मीनान से ख़ुद में डूबकर लिखते हैं और दिल की गहराईयों से कहते हैं। उनकी शायरी में लोगों को रिझाने की, ख़ुद को मनवाने की कसरत नहीं है। उनकी शायरी किसी झरने सी बहती है और राह में आने वाली ज़मीन को भिगोती चलती है। इसको उनके ही शब्दों में कुछ यूँ कहा जा सकता है।


मुन्तज़िर गो दिल के बहलाने का हूँ,
मैं न महफ़िल का, न मयख़ाने का हूँ।
है अगरचे ज़िंदगी क़िस्सा वही,
मैं नया मजमून अफ़साने का हूँ।


‘ज़र्फ़’ देहलवी की शायरी का सफ़र जारी है, इसमें हर ग़ज़ल एक ऐसा पड़ाव है, जो कल ग़ज़ल के चाहने वालों के लिए एक मील का पत्त्थर बनेगा।

- विवेक मिश्र -

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