Jan 27, 2010

वर्ल्ड बुक फ़ेयर - २०१०, ३० जनवरी से 7 फ़रवरी, प्रगति मैदान, आई टी ओ, दिल्ली
शिल्पायन, हॉल नम्बर - १२ ए, स्टॉल नम्बर - १७१,१७२, व १७३ में विवेक मिश्र की तीनों किताबें:
१ हनियां तथा अन्य कहनियाँ - कहानी संग्रह
२ बोल उठे हैं चित्र - चित्र-कविता संग्रह
३ लाईट थ्रु अ लेबेरिन्थ -अंग्रेज़ी में अनुदित कविताएँ उपलब्ध हैं।






Jan 23, 2010













प्रकाशक - प्रोफ़ेसर पी लाल, राईटर्स वर्कशॉप, कोलकाता
मूल्य - रू १५०/-

पिछ्ले दिनों विवेक मिश्र की कविताओं एवं ग़ज़लों का अंग्रेज़ी में अनुवाद, प्रोफ़ेसर पी लाल, राईटर्स वर्कशॉप द्वारा, कलकत्ते से प्रकशित हुआ है। इस किताब का नाम “लाईट थ्रु अ लेबेरिंथ” है एवं इसे अमृता बेरा ने अनुवाद किया है। इस किताब को प्रकाशक के वेबसाइट http://www.writersworkshopindia.com/ पर जाकर देखा व ख़रीदा जा सकता है।

किताब से:

Desire
In a big
courtyard
racing a
small bicycle,
round and round,
a child of seven
doesn’t know
which part
of the world
he is in.

He doesn’t know
since when,
the huge,
golden sphere
shining throughout
the dawn till dusk
is wandering
across the
sky blue ground,
hanging
upside down,
above his head.

He doesn’t
even know
from where does
suddenly
the machine birds
appear,
whizzing angrily
across the
sky blue ground
and drop
balls of fire
around his house

He only understands
this much,
that even after
so much
being effaced
around him,
he is the
only one
left with
two legs,
one bicycle
and the desire
to race it
fast,
round and round,
race it
fast
round and round



Identity
I am constantly
losing my identity,
getting smaller
and even
more small.

Suppressing my anger
and frustration,
I find myself
changed into
different forms.

The mirror too
is surprised
to see my image,
for I’m taking
a new shape
each day.

Sensitivity
within me,
seems to have
drained,
for nothing
is left now,

Whatever remains
outside,
is consuming me,
and I am
consuming it too

मूल कविताएं 'इच्छा' एवं 'अस्तित्व', मेरे अन्य चिट्ठे 'कविता का कोना' में पढ़ी जा सकती हैं।

Jan 20, 2010

दिल में उतर जाने वाला शायर, ‘ज़र्फ़’ देहलवी

जहाँ की भीड़ से बचकर जब आता हूँ क़रीब अपने,
ख़ुद अपनी ही ग़ज़ल होता हूँ, ख़ुद पुरसाज़ होता हूँ।

यह सच ही है कि ग़ज़ल का फ़लक फैले तो जहाँ ढक ले और सिमटे तो किसी की आँख के आसूँ में उतर आए। ग़ज़ल उर्दु शायरी की संस्कृति का ढाँचा है। ग़ज़ल शायरी नहीं तहज़ीब है। इसलिए ग़ज़ल पढ़कर किसी की शायरी का ही अँदाज़ा नहीँ होता बल्कि उसके भीतर के इंसान का भी अंदाज़ा होता है। उसकी अंदरूनी शख़्सियत का भी अंदाज़ा होता है। ग़ालिब ने कहा है कि कोई अच्छा इंसान बने बिना, अच्छा शायर नहीं हो सकता। आर बी एल सक्सेना जिन्हें शायरी की दुनिया में ‘ज़र्फ़ देहलवी’ के नाम जाना जाता है। उनके बारे में यह बात बड़े भरोसे के साथ कही जा सकती है कि उनकी ग़ज़लें उनकी शख़्सियत का आईना हैं। उनकी ग़ज़लों की लय, उनका तरन्नुम एक भंवर की तरह पढ़ने-सुनने वालों को अपने भीतर खींच लेती है। कोई भी उन्हें सुनकर उनमें डूबे बिना नहीं रह सकता।

नई फ़िज़ा है नए गीत सुनाने होंगे,
सभी को वक़्त के दस्तूर निभाने होंगे।
‘ज़र्फ़’ ईमान बचाता था आदमी को कभी,
अब आदमी को ख़ुद ईमान बचाने होंगे।

‘ज़र्फ़’ देहलवी की शायरी महज़ शायरी नहीं, ज़िंदगी के ऐसे बेबाक बयान हैं, जो अंधेरे में बिजली से तड़कते हैं और बहुत कुछ अनायास ही नज़र आ जाता है।

आदमी लाख अहले इश्क़ सही,
आदमी बेवफ़ा भी होता है।
ज़िंदगी एक खुली किताब सी है,
इस में पर कुछ छुपा भी होता है।

‘ज़र्फ़’ देहलवी की शायरी में ग़ज़ल के लिहाज़ से वे सारी ख़ूबियाँ हैं, जिनकी ग़ज़ल कहने के लिए और उसके शेरों को आम आदमी की ज़िंदगी से जोड़ने के लिए उसमें होनी चाहिए।
उनकी नफ़ीस ज़बान , ढबदार कहन, परतदारी, मौजूदा हालात के अहम मुद्दों की गहरी जानकारी और कहने की ईमानदारी कुछ ऐसी बातें हैं जो ‘ज़र्फ़’ साहब को ग़ज़ल की दुनिया में एक अलग जगह देती है। उनकी बहुत आम और सहज लगनेवाली ग़ज़लों में कहीं बहुत गहरे में कई पर्तों के नीचे कई अलग-अलग मायने छुपे होते हैं, जिन्हें बार-बार सुनने-पढ़ने पर ही समझा जा सकता है।

इक ख़ामोशी हर जगह तारी है यूँ,
हर तरफ़ आवाज़ ही आवाज़ है।
बरहमी है क्यूँ नुमाया हर जगह,
क्या ज़मीं से आसमां नाराज़ है।

ग़ज़ल में जिस नाज़ुक अंदाज़ में अपनी बात कहने का चलन है ‘ज़र्फ़’ साहब उसे बरक़रार रखते हैं। गोया ग़ज़ल ही ‘ज़र्फ़’ देहलवी की माशूक है, इसलिए वह कड़वी बातें भी इस अदा से कहते हैं कि ग़ज़ल को कहीं चोट न पहुँचे।
आज ग़ज़ल की परम्परा को, उसके अंदाज़े बयाँ को जो लोग दिल से जीते हैं, जिन्होंने उस विधा को बहुत कुछ दिया उनमें ‘ज़र्फ़’ ‘देहलवी एक बहुत अहम नाम है। ‘ज़र्फ़’ देहलवी ने रौशनी में आने के लिए ग़ज़ल नहीं कही, बल्कि अंधेरा मिटाने के लिए ग़ज़ल कही हैं। यह फ़र्क़ उनकी शायरी पढ़ने-सुनने वालों को साफ़ दिखता है।

उठी है आतिशे बरहम कहीं से,
ख़फ़ा है आसमां शायद ज़मीं से।
हुई है इस क़दर रौशन ये दुनिया,
कि डर लगता है अब इस रौशनी से।

‘ज़र्फ़’ देहलवी की शायरी उस समय की शायरी है, जब ख़ुद को ग़ज़लगो कहने वाले लोग बार-बार कुछ नया कर दिखाने का दावा करते हैं पर अक्सर पुराने ढोल पीटते, जबरन काफ़िए भिड़ाते, अपनी जगह बनाने की जल्दी में नज़र आते हैं। वहीं ‘ज़र्फ़’ पूरी तसल्ली, पूरे इत्मीनान से ख़ुद में डूबकर लिखते हैं और दिल की गहराईयों से कहते हैं। उनकी शायरी में लोगों को रिझाने की, ख़ुद को मनवाने की कसरत नहीं है। उनकी शायरी किसी झरने सी बहती है और राह में आने वाली ज़मीन को भिगोती चलती है। इसको उनके ही शब्दों में कुछ यूँ कहा जा सकता है।


मुन्तज़िर गो दिल के बहलाने का हूँ,
मैं न महफ़िल का, न मयख़ाने का हूँ।
है अगरचे ज़िंदगी क़िस्सा वही,
मैं नया मजमून अफ़साने का हूँ।


‘ज़र्फ़’ देहलवी की शायरी का सफ़र जारी है, इसमें हर ग़ज़ल एक ऐसा पड़ाव है, जो कल ग़ज़ल के चाहने वालों के लिए एक मील का पत्त्थर बनेगा।

- विवेक मिश्र -