'सरस्वती सुमन' त्रैमासिक पत्रिका का दोहा विशेषांक दोहों को उनकी पूरी समग्रता के साथ पुनः स्थापित करने का एक प्रयास है। पत्रिका के संपादक आनंद सुमन सिंह तथा अतिथि संपादक अशोक 'अंजुम' हैं। पत्रिका में हिन्दी काव्यधारा में दोहों का इतिहास, उनके प्रकार, उनका महत्व एवं उनके गुणों को उजागर करते लेख एवं साक्षात्कार हैं, जिसमें अतिथि संपादक अशोक 'अंजुम' की वरिष्ठ कवि गोपाल दास नीरज एवं सहित्यकार देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' से की बात-चीत, दोहों के विषय में चर्चा को नए आयाम देती है। दोहों के प्रकारों पर प्रकाश डालता डॉ राम स्नेही लाल शर्मा 'यायावर' का लेख नए दोहाकारों के लिए विशेषकर पठनीय एवं संग्रहणीय है। दोहों में मात्राओं के महत्व को बताता चंद्रपाल शर्मा का लेख भी शोधपरक है।
विशेषांक में संत दादू के दोहों से लेकर नई पीढ़ी के लगभग 125 दोहाकारों को शामिल किया गया है। इससे स्वतः ही दोहों की यात्रा एवं विकास का भान हो जाता है।
यूँ तो विशेषांक में वर्तमान समय के रचनाकारों को ही प्रमुखता से छापा गया है, परन्तु दोहों की विरासत की चर्चा हो और कोई संत कबीर को नज़र अंदाज़ करे, यह बात खलती ही नहीं बल्कि सीधे-सीधे दोहों की चर्चा में कबीर की अनदेखी किसी भी तरह गले नहीं उतरती। शायद ही कोई रचनाकार यह भूल सकता हो कि हिन्दी कविता के इतिहास में कबीर और दोहे एक-दूसरे के पर्याय हैं।
विशेषांक के मुख्य पृष्ठ पर छपा चित्र विशेषांक की सामग्री के कतई अनुकूल नहीं है, जबकी भीतर के पृष्ठों पर छपे रेखाचित्र जो अतिथी संपादक अशोक 'अंजुम' के हैं, बहुत प्रभावशाली एवं सामग्री के अनुकूल हैं। अंक में पिछले दशक में छपी महत्वपूर्ण सतसईयों की भी अनदेखी की गई है, जिससे धर्म प्रकाश गुप्त जैसे बड़े दोहाकार अंक से बाहर हैं, पूर्वी उत्तर प्रदेश के कवि 'त्रीफ़ला' जो दोहों और सतसईयों के लिए जाने जाते हैं, उनकी सुध भी नहीं ली गई है। उसका कारण अधिकांश रचनाकारों का चुनाव मंचीय कवियों में से ही किया गया है, जिससे अधिकांश दोहों में विषयों की पुनरावृत्ति का दोष तो आया ही है, साथ ही कुछेक दोहे बहुत हल्के, चलताऊ और अर्थों में बहुत उथले प्रतीत होते हैं। विशेषांक के अंत में दिए दोहे से ही यदि यह बात करें तो यूँ होगी -
सब कुछ उल्टौ हो गयौ, भयौ बुरौ सब फेर ।
तुलसी, सूर, कबीर सब देख रहे अंधेर ।
दोहों को अपनी तुकों, मात्राओं और लय के कारण ही नहीं बल्कि अपने भीतर छुपे गूढ़ दर्शन और जनहित के लिए दिए गए संदेशों और शिक्षाओं के लिए भी प्रमुखता से जाना जाता है। आज दोहों का प्रयोग हल्के, चलताऊ जुमलों या नारों की तरह तालियाँ बटोरने के लिए हो रहा है। दोहा दरअसल दर्शन को समेटकर उसे संक्षिप्त कर जन साधारण तक पहुँचाने के लिए लिखा जाता था, इसकी भाषा लोक भाषा होती थी पर इसके अर्थों की कई पर्तें होती थीं। दोहों के गुणों की इस कसौटी पर कुछ ही दोहाकार आज खरे उतरते हैं। विशेषांक के कुछ दोहे -
इसक अलद की जात है, इसक अलह का अंग ।
इसक अलह औजूद है, इसक अलद का रंग ॥ -संत दादू-
अभी नहाया है छुरा, लगी सड़क पर भीड़ ।
घबरा कर दुखने लगी, बड़े-बड़ों की रीढ़ ॥
राजपथों पर खो गया, जीवन का भूगोल ।
ख़ाका सब पूरा हुआ, ख़ास बात है गोल ॥ -म ना नरहरि-
देख-देख पर्यावरण, बहा रहा है नीर ।
ताजमहल किससे कहे, अपने मन की पीर ॥
आसमान को छू रहे, आलीशान मकान ।
तरस रहे हैं धूप को, घर के रोशनदान ॥ - अंसार कंबरी-
बेशक मुझको तौल तू, कहाँ मुझे इन्कार ।
पहले अपने बाट तो जाँच-परख ले यार ॥ -हस्तीमल हस्ती-
अग्निपरीक्षा भी कहाँ जोड़ सकी विश्वास ।
युग बीते, बीता नहीं, सीता का वनवास ॥ -सरिता शर्मा-
अर्थहीन कुछ ने कहा, कुछ ने अर्थातीत ।
अव्याख्येय रहस्य सा जीवन हुआ व्यतीत ॥ -शिवओम अंबर-
पत्रिका छः वर्षों में चवालीस अंक निकाल चुकी है। लगभग पौने दो सौ पृष्ठों का दोहों पर केन्द्रित यह अंक पाठकों को कई सिद्ध दोहाकारों की रचनाओं से रूबरू होने का मौक़ा देता है। नए दोहाकारों को सीखने के लिए अंक में पर्याप्त सामग्री है।
अंक - 'सारस्वतम', 1-छिब्बर मार्ग, देहरादून - 248001 से मंगाया जा सकता है।
- विवेक मिश्र -
3 comments:
आभार पत्रिका विषयक जानकारी का.
nice
धन्यवाद प्रतिक्रिया के लिए।
विवेक मिश्र
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