Jun 29, 2010

'युद्धरत आम आदमी'













यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि 'युद्धरत आम आदमी' मात्र पत्रिका नहीं है। यह एक आंदोलन है। एक ऐसा आंदोलन जो तमाम आंदोलनों, अभियानों और क्रांतियों में नज़र अन्दाज़ किया जाता रहा। हमेशा जिसे धकिया कर वार्ताओं से, योजनाओं से, किताबों और पत्रिकाओं से बाहर निकाला जाता रहा। यह ऐसा आंदोलन है, जो कभी किसी राष्ट्रीय पार्टी के एजेंडे में प्रमुखता नहीं पा सका। तथाकथित बुद्धिजीवीयों ने, साहित्यकारों ने भी इसे छूने से परहेज़ किया। पत्र-पत्रिकाओं में, सहित्य में हज़ारों-लाखों की तदाद में रोज़ छपने वाले पन्नों में इस विषय को हाशिए तक पर जगह नहीं मिली।
रमणिका फ़ाउन्डेशन ने अपने तमाम प्रकाशनों के साथ 'युद्धरत आम आदमी' के माध्यम से समाज के सबसे निचले पायदान पर बैठे, अपनी जगह ढूँढ रहे लोगों को एक आवाज़ दी।
'युद्धरत आम आदमी' का पूर्वांक-101, 2009 - "सृजन के आईने में - मल-मूत्र ढोता भारत" जिसका संपादन रमणिका गुप्ता तथा सुशीला टांकभौरे ने किया है, जो कि अंक-103 (अप्रेल-जून, 2010) के साथ पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ है।
जैसा कि अंक के मुख्य पृष्ठ से ही बिल्कुल साफ़ हो जाता है कि यह अंक बिना किसी लाग-लपेट के, बिना किसी दुराव-छुपाव के सीधे-सीधे उन लोगों की बात कर रहा है, जो सदियों से रोज़ सुबह उठकर अपने ही जैसे दिखने वाले इन्सानों का मल-मूत्र समेटने और उसे अपने सिर पर ढोकर घर, गाँव, शहर से दूर ले जाकर फेंकने जैसे अमानवीय काम को अंजाम देते हैं। यह काम करते हाथ एक दिन के लिए रुक जाएँ तो कितने ही घरों की सुबह भी ठहर जाए। आज इक्कीसवीं सदी में विकास का दम भरते, विश्व शक्ति बनने का सपना देखते भारत की हवा उस समय निकल जाती है, जब कोई इन्सान अपने सिर पर मल-मूत्र ढोने जैसे काम को आज भी करने के लिए विवश दिखाई देता है और ऐसे लोगों की संख्या दस-बीस या सौ-दो सौ नहीं बल्कि हज़ारों-लाखों में है। आज भी ग्रामीण भारत में सैंकड़ों गाँवों-कसबों में हज़ारों परिवार रोज़गार के विकल्प के अभावों में, इस काम को करने के लिए मजबूर हैं।
अंक का संपादन पूर्णतया निष्पक्ष होकर निर्भीकता से किया गया है। अंक में विषय से संबन्धित दलित लेखन को उसकी अन्तर चेतना के साथ समाहित किया गया है।
आवरण चित्र एंव कला निर्देशन डॉ सुधीर सागर का है। पत्रिका का मुख्य पृष्ठ ही विषय के बारे में बहुत कुछ कह जाता है। अंक में हिन्दी के साथ मराठी, गुजराती, तेलुगू के लेखकों को भी स्थान दिया गया है। अंक में कहानी, कविता, पुस्तकों के अंशों, समीक्षात्मक आलेख एंव विवेचनात्मक मूल्यांकनों को, नाटक एंव लघुकथाओं को शामिल किया गया है।
रमणिका फ़ाउन्डेशन के इस प्रयास से अपनी जगह ढूँढते विषय एंव उस पर हो रहे लेखन और चिन्तन को पर्याप्त जगह मिली है। अंक की चर्चा भी रही। समस्या में गहराई से उतरने और उसे समझने का उन लोगों को भी मौक़ा मिला जो इस विषय में सोचने से पहले ही छी-छी कहके नाक पर रूमाल रखकर वेदों और पुराणों का हवाला देते हुए इसे पूर्वजन्मों का लेखा कह कर रास्ता बदल लेते हैं।
पत्रिका जो अब पुस्तक के रूप में है, उसने दलितों को सभी भुलावों से दूर हटकर वर्ण व्यवस्था की थोथी पट्टी न पढ़कर, उसे जलाकर नए भविष्य की नींव रखने का आह्वान करती है। नई व्यवस्था रचने को उकसाती है और जाति के आधार पर किसी को श्रेष्ठ या स्वंय को दलित समझकर इस कार्य से जुड़े रहने की थोथी दलील को सिरे से खारिज करती है। दलित चेतना को जगाने की दिशा में यह एक मज़बूत क़दम है।
यह बात अजय नावरिया अपनी कविता में कुछ ऐसे कहते हैं :-
"शब्द थे, बहुत पहले से
पर मेरी मुट्ठीयों में नहीं थे
कस कर बाँध दिया था
उन्हें मेरी आँखों पर
ताकि देख न सकूँ उन के भीतर
अर्थ की चिल्लाती रोशनी को
बेशक, मुट्ठी में आते ही
चकाचौंध हुई आँखें, पल भर को
……फिर बन गया वह
झरझर झरता झरना
……ये मेरी हथेलियों पर
पंख लगाए उड़ते शब्द
ये समूचे अस्तित्व में सेंध लगाते
इनके असीमित अर्थ ……
असीमित शब्दों को उघाड़ता नए आयाम रचता, चेतना का प्रकाश फैलाता यह अंक, सचमुच जड़ मान्यताओं की आँखें चुँधिया देगा। इसकी रोशनी का स्वागत किया जाना चाहिए।
- विवेक मिश्र -




2 comments:

Udan Tashtari said...

अजय नावारिया की कविता बहुत पसंद आई.

Unknown said...

Ise kese prapt kiya ja skta h. Pls btae