Aug 20, 2010

ग़लत समय पर प्रकाशित सही कविताएँ














कृति- अतीत के प्रेत
विधा- कविता
कवि- जगदीश सविता
प्रकाशन- सारांश प्रकाशन
मूल्य- रु 100

‘अतीत के प्रेत’ जगदीश सविता जी का एक ऐसा काव्य-संग्रह है, जिसमें पौराणिक और मिथकीय पात्रों-चरित्रों और घटनाओं के माध्यम से कवि हमारी संस्कृति की जड़ों में बैठे ढकोसलों की बड़ी बारीक़ी से पड़ताल करता है। वह सदियों से महिमा-मंडित किए जाते रहे देवतुल्य या स्वयं अवतार कहे जाने वाले चरित्रों की भी पोल खोलता है, उनसे सवाल करता है और उनकी दिव्यता को, उनके अस्तित्व को कठघरे में खड़ा करता है। वह पुराणों और मिथकों में से ही ऐसे चरित्र, ऐसी घटनाएँ ढूंढ लाता है, जो गवाह हैं इस बात की, कि कमज़ोर का शोषण हर हाल में, इस काल में होता रहा है, होता रहेगा। इससे छुटकारा तभी संभव है जब हम अपनी ऑंखों से अंधविश्वास की पट्टी हटाएँ, अपने विवेक को जागृत करें, हर वर्ग का, हर व्यक्ति शिक्षित हो, ताकि सुनी-सुनाई मन-गढ़न्त बातें उसके जीवन का मार्ग निर्धारित न करें। वह अपना सत्य स्वयं खोजे, उसे जाँचे-परखे, चाहे उसे हज़ारों-लाखों बार गिरना पड़े, मुँह की खानी पड़े।

…पात्र हैं महाभारत के
एक से बढ़कर एक
लम्पट शान्तनु
कुण्ठाओं का गट्ठड़ भीष्म
भाड़े का टट्टू द्रोण
और निरीह शिशुओं का हत्यारा
उसका कुलदीपक
दूरदर्शी संजय
अंधा धृतराष्ट्र
फूट चुकी हैं जिसकी
हिय की भी!
….और पहलवान भीम
नपुंसक धनुर्धारी
और उसकी गाड़ी खींच ले जाने वाला
छलिया कृष्ण
जिसे भगवान मानने में ही ख़ैर
ये सभी
मानो चिल्ला चिल्लाकर कह रहे हों
”हम आज भी हैं
महाभारत कभी ख़त्म नहीं होता”

कवि इन मिथकों में, पुराणों में सच्चा इतिहास ढूंढता है और हताश होकर मात्र कविता में, या कल्पना में थोड़ा-बहुत सत्य बचे रह जाने से ही संतोष करता है, पर साथ ही झूठ के पुलिंदों से दूर रहने को आगाह भी करता है-

‘लाश घर’ है इतिहास
एक एल्बम है जिसमें
महलों के
षडयंत्रों के
युध्द के मैदानों के
कहाँ है प्राणवन्ता?
रंग… रूप… रस?
कहाँ हैं धड़कनें?
आहें?
वह तो भला हो कल्पना का।

वाक़ई इतिहास में ज़िक्र है राजाओं का, रानियों का, देवों का, अवतारों का, युध्दों का, पर कहाँ गई वो युध्द में हताहत हुए सैनिकों की सूची? कहाँ गई उन स्त्रियों की, बच्चों की चीखें, कहाँ गया उन लाखों-करोड़ों मनुष्यों के रक्त का हिसाब, जो कट गए किसी एक व्यक्ति के स्वार्थ के लिए,किसी एक व्यक्ति की महत्वाकांक्षा के लिए। क्यों उनके लिए नहीं चला सुदर्शन चक्रद्व क्यों उनकी रक्षा के लिए नहीं अस्त हुआ समय से पूर्व सूरजद्व क्यों नहीं शहीद हो गए मुस्कुराते हुए महानायक युध्द में-

यदि तुम चाहते तो
रुक सकता था महासमर!
तुम्हें तो मालूम था योगिराज!
विषाद ही तो है
योग के सोपान का प्रथम पायदान
आत्मग्लानि में डूबा
द्रवितमना अर्जुन
क्या ज़रूरत थी
उस सत्रह अध्याय लम्बे वाग्जाल की?
…बच सकते थे अठारह अक्षौहिणी जीवन
यदि तुम चाहते तो!

जगदीश सविता जी की कविताएँ उस समय की कविताएँ हैं जब आज़ादी के बाद लोग सकारात्मक बदलाव के सपने देख रहे थे। कविता छन्दों से निकल कर मुक्त हो रही, रोज़मर्रा की ज़िन्दगी को आम आदमी के शब्दों में कहा जा रहा था। यूँ कहें कि नई कविता की नींव पड़ रही थी, जब मुक्तिबोध को, उनकी कविताओं को बहुत बड़ा कवि वर्ग नकार रहा था और वहीं-कहीं मुक्तिबोध के लिए, उनकी कविता के लिए ज़मीन तैयार हो रही थी-

क्या दिन थे वे भी…
रोज़ तीन टांग वाले स्टोव पर
वह मेरा चाय बनाना
गली के काणे कुत्ते का
हिज़ मास्टर्स वाइस के पोज़ में
आ बैठना…
…कई एकड़ में फैली
नवाब साहब की हवेली में
खुलेगा
एक दिन ज़रूर खुलेगा
कम्यूनिस्ट पार्टी का दफ्तर
लहराएगा लाल परचम
…हाँ तो पहलवान
देना एक बीड़ी
माचिस है मेरे पास
…..क्या दिन थे!

कवि बुरे हालातों में भी एक मस्त कलन्दर की ज़िन्दगी जीता है, घोर निराशा के क्षणों में भी उम्मीद रखता है, लाल परचम लहराने की। साधनहीन खड़ा है पर बेबाक़ी से मांग सकता है, छीन सकता है साधन क्रांति के….. क्योंकि ‘माचिस है उसके पास’।
सच ही है। जगदीश सविता की कविताएँ चिंगारियाँ हैं, जो सीनों में दबे बारूदों को धमाकों में बदल सकती हैं। पर अफ़सोस कि ये कविताएँ ऐसे समय में सामने आ रही हैं जब सारी पार्टियों के चेहरे से नक़ाब उतर चुके हैं। क्रान्तियों की दिशा बदल चुकी है। युवाओं का आन्दोलन वंचितों का आन्दोलन एक अंधी हिंसक लड़ाई में तब्दील हो गया है। ऐसे मैं इन कविताओं को पूरे एहतियात के साथ, उस समय से जोड़ कर पढ़ा जाना चाहिए, जिस समय में ये लिखी गई थीं।
जगदीश सविता जी के पाँच काव्य-संग्रह हिन्दी में तथा एक काव्य संग्रह अंग्रेजी में प्रकाशनाधीन है।

-विवेक मिश्र-

Aug 18, 2010

'अमिट ह्स्ताक्षर' - पद्मश्री वीरेन्द्र प्रभाकर









'अमिट ह्स्ताक्षर' - पद्मश्री वीरेन्द्र प्रभाकर जी के द्वारा लिए गए छायाचित्रों के माध्यम से, एक बीते युग का सफ़र है।


'अमिट हस्ताक्षर' वीरेन्द्र प्रभाकर जी के लम्बे फ़ोटोग्राफ़ी के कैरियर में लिए गए उन दुर्लभ चित्रों की झाँकी है, जिनमें देश का पिछले पचास सालों में बदलता चेहरा सामने आता है। संग्रह में वीरेन्द्र प्रभाकर जी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते कई लेख भी हैं।
प्रकाशन की दृष्टि से इतने सारे चित्रों को इतने वर्षों तक संजोकर के रखना और उन्हें संयोजित कर पुस्तक का रूप देना सचमुच ही सराहनीय कार्य है। पुस्तक में चित्रों के माध्यम से आज़ादी के पहले गाँधी जी के समय से लेकर आजतक के आधुनिक भारत की तस्वीरें हैं।
चित्रों के चयन एवं संपादन में व्यक्तियों को अधिक महत्व दिया गया है। संग्रह में आम आदमी के, दर्शनीय स्थलों के एवं प्राकृतिक सौन्दर्य के चित्रों का सर्वत्र अभाव है। ऐसा नहीं कि साठ सालों के सफ़र में वीरेन्द्र जी के कैमरे की आँख को सत्ता के गलियारों से बाहर झाँक कर गाँव में बसे असली भारत को देखने का मौक़ा मिला हो, पर संग्रह में कैमरे की आँख सत्ता के गलियारों में ही भटकती रहती है, इसीलिए संग्रह में उन्हीं लोगों के चित्रों की अधिकता दिखाई देती है जो लम्बे समय तक सत्ता में या इसके आस-पास रहकर ही देश की सेवा करते रहे हैं। कुछ चित्रों का रेसोल्युशन कम है जो छपने पर बदरंग लगते हैं, उन्हें प्रकाशन से पहले ठीक किया जाना चाहिए था।
संग्रह में संग्रहीत चित्र प्रभावित तो करते हैं, परन्तु कहीं कहीं भारत की भव्यता को प्रदर्शित करते हुए उसकी आत्मा को छूने में चूक जाते हैं।

- विवेक मिश्र -

Aug 10, 2010

कंदील की रोशनी में, सच को उघाड़ती कविताएं - विवेक मिश्र















कंदील की रोशनी में, सच को उघाड़ती कविताएं - विवेक मिश्र
(www.vivechna.blogspot.com)


स्त्री विमर्श के घेरे में आती तमाम चिन्ताओं को रेखांकित करती, दोहराती, उनका पुनःपाठ करती और अब उन चिन्ताओं के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने के लिए, स्त्रियों से आह्वान करती, एक मुखर स्वर की कविताएं हैं, कवयित्री कुन्ती के कविता संग्रह 'अंधेरे में कंदील' में। वह कहती हैं -
अब बीती बातों को
भुलाने की बात नहीं
ज़रूरत है/ बार-बार दोहराने की
कुन्ती कथ्य और शिल्प के स्थापित फ़ॉर्मेट के ढर्रे में चल कर कविताएं नहीं लिखती। वह बिना किसी वाग्जाल के, सीधे नारी अन्तःकरण की पीड़ा को व्यक्त करती हैं -
तुम कहते हो कविता
तो कह लो
यह आर्तनाद है! ……उस स्त्री का
जिसे लाया गया कई बार
कसाईखाने में!
कुन्ती ने अपनी कविताओं से स्त्री विमर्श के विभिन्न अंधियारे कोनों में, नारी शोषण के ख़िलाफ़ यहाँ-वहाँ, जलती-बुझती रोशनी को समेट कर, एक कंदील जलाई है, जो धीरे-धीरे मशाल में तब्दील होती लगती है -
हज़ारों अंधेरे
अपने आप में समेटे हुए
ठिठुरते हाथों में, थामे हैं
वो जगमगाता कंदील
पर उसकी एक भी किरण
उस पर नहीं पड़ती।
इस संग्रह में कुन्ती ने न केवल दलित, शोषित, अनपढ़ और पिछड़ी महिलाओं की समस्याओं की बात की है, बल्कि पढ़ी-लिखी, कामकाजी, नए समय और विकास के साथ तालमेल बिठाती महिलाओं के मन में भी झाँका है -
यूँ तो कहने को तुमने
मेरे जीवन के
अधिकतम पृष्ठ पढ़े हैं।
फिर भी यही कहते रहे
कि नहीं समझ पाया तुम्हें अब तक
………पर तुमने
पढ़ना ही मुझे
अंतिम पृष्ठ से शुरू किया था।
इस संग्रह की कविताओं में विविधता है पर इनके केन्द्र में नारी जीवन की समस्याएं, उसका दुख-दर्द और कहीं-कहीं उसमें दबी-छुपी बदलाव की एक हल्की सी उम्मीद है। पर अभी भी वह, ये बदलाव अपनी स्त्री मन की कोमलता के साथ, अपने रिश्तों और उनके वर्तमान सामाजिक ताने-बाने के साथ ही पाना चाहती है। वह चाहती है उसके आस-पास का वातावरण, समाज, परिवार, व्यक्ति सब इस बदलाव की ज़रूरत को महसूस करें। न कि वह अकेली परिवर्तन की ओर, इन सबको पीछे छोड़ती हुई, आगे बढ़े। इसीलिए वह कहती है -
समय के स्लेट पर/
वर्तमान की क़लम से तुम/
इतना भर लिख दो/
कि रोशनी तेरे लिए भी है/बस/
सुबह तक इन्तज़ार कर।
कुन्ती की कविताओं में सामाजिक परिवर्तन की उम्मीद है। उनकी उम्मीद, बदलाव की मशाल बने। इसी इच्छा के साथ………

- विवेक मिश्र -
(www.vivechna.blogspot.com)

Aug 7, 2010

सदियों पहले काटे गए पंखों का दर्द कहती हैं, सुधीर सागर की कविताएं


सदियों पहले काटे गए पंखों का दर्द कहती हैं, सुधीर सागर की कविताएं
- विवेक मिश्र (www.vivechna.blogspot.com)






डॉ सुधीर सागर के कविता संग्रह 'बस! एक बार सोचो' की कविताएँ, एक संकटग्रस्त समाज के भीतर, निरन्तर संघर्षरत, उस वर्ग विशेष की पीड़ा को स्वर देती कविताएँ हैं, जिसे देश और समाज के एक बहुत बड़े वर्ग द्वारा न केवल नज़रअंदाज़ किया गया, बल्कि उसकी उपस्थिति और अस्तित्व को ही सिरे से नकारा जाता रहा। आज इक्कीसवीं सदी की चकाचौंध में जहाँ हर छोटा-बड़ा रास्ता हमें खींचकर बाज़ार की ओर ले जा रहा है। हर चीज़ की क़ीमत तय हो चुकी है। विचार से लेकर व्यक्ति तक, रूपहली पैकिंग में, बिकने के लिए बाज़ारों में सजे हैं। तेज़ी से बदलते इस देश में, एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी वहीं खड़ा है जहाँ सदियों पहले उसे, आँखों पर धर्म और वर्ण व्यवस्था की पट्टी बाँध कर, सदा-सदा के लिए, अंधेरे में, सड़ांध में पीढ़ी दर पीढ़ी एक अभिशप्त जीवन जीने के लिए धकेल दिया गया था - "खण्डित शिलाओं की तरह/मौजूद हैं तन-मन पर/लहुलुहान ख़रोंचें/……यह जाति कोई विशेष प्रजाति का जानवर नहीं/ये पूरी मानव जाति का/ चिंदी-चिंदी हो चुका/ एक चीथड़ा है।"
सुधीर सागर का कवि क्षद्म विकास और परिवर्तन के पीछे छुपे ढोंग को, उदारता के स्वांग को अच्छे से समझता है और उसके चेहरे से, पूरी निर्ममता के साथ, सबके सामने, उसका मुखौटा उतार फेंकता है - "सिर उठा कर/भूल मत जाना/जिसके समीप बैठे हो/……उनका अन्तःमन जल रहा है/ स्वर्ण अभिजात्य मनसिकता की तपिश से/ ……तुम्हारे जाते ही/ चारदीवारी पर रख दिया जाएगा/ घर से बाहर/ तुम्हारी चाय का/ ………जूठा कप।"
वादों-प्रतिवादों और सिद्धान्तों से बहुत दूर, सारी बौद्धिकताओं से परे, आदिवासी ज़िन्दगियों के संघर्ष की ऐसी त्रासदी को ही बयान करती है, इस संग्रह की एक कविता 'पत्थर पर बनी लक़ीर'। इस संघर्ष को देखते हुए, सबकुछ जानते हुए भी, न हम उनके लिए कुछ कर पाते हैं और न ही हम उन्हें उनके परिवेश में अपनी तरह जीने की आज़ादी ही दे पाते हैं। तमाम व्यर्थ की बहसों के निष्कर्ष में, कुछ भी ऐसा नहीं निकल पाता, जो इस 'पत्थर पर बनी लक़ीर' को मिटा सके, जो सबको एक पूरी और निश्चिन्त साँस लेने की आज़ादी दिला सके - "पत्थर पर बनी लक़ीर/मिटाए नहीं मिटती/ अमर हो जाती है लक़ीर/बनकर एक बार पत्थर पर/ ……वर्षों बाद भी यह मिलेंगी/उन इमारतों के खण्डहरों में/ जहाँ छाई होंगी वीरानियाँ/……थारू ज़िन्दगी भी एक/पत्थर पर बनी लक़ीर है।" (थारू - आदिवासी)
सुधीर अच्छी तरह जानते हैं कि किसी वर्ग के अन्तःमन पर सदियों से बने घाव जब नासूर बन जाते हैं, तो ऊपरी तौर पर महज़ कुछ नौकरियों में आरक्षण देकर, कुछ कपड़े-किताबें और वज़ीफ़े बाँटकर ……या सिर्फ़ उन्हें प्यार से हरिजन कहकर कुछ भी नहीं बदला जा सकता है। अगर कुछ बदलना है तो वह है हमारे वर्तमान समाज, प्रशासन, हमारी राजनैतिक व्यवस्था और हमारे संविधान की उस वर्ग के लिए सोच। अगर उनको कुछ देना है तो वह है उनका मनोबल, उनका सदियों पहले छीना गया आत्म सम्मान। फिर उन्हें तुम्हारे उपकार की आवश्यकता न होगी। वह स्वंय खड़े हो सकेंगे। अपनी आँखों से देख सकेंगे अपना और इस दुनिया का सच - "मैं परिंदा/ दूसरों की उड़ान देख/उड़ने की कोशिश में/गिर गया पथरीली धरा पर/क्योंकि भूल गया था/पंख काटे थे किसी ने/ सदियों पहले।"
दलितों के सदियों के शोषण का सच्चा दस्तावेज़ हैं सुधीर सागर की कविताएँ।
- विवेक मिश्र -