कृति- अतीत के प्रेत
विधा- कविता
कवि- जगदीश सविता
प्रकाशन- सारांश प्रकाशन
मूल्य- रु 100
‘अतीत के प्रेत’ जगदीश सविता जी का एक ऐसा काव्य-संग्रह है, जिसमें पौराणिक और मिथकीय पात्रों-चरित्रों और घटनाओं के माध्यम से कवि हमारी संस्कृति की जड़ों में बैठे ढकोसलों की बड़ी बारीक़ी से पड़ताल करता है। वह सदियों से महिमा-मंडित किए जाते रहे देवतुल्य या स्वयं अवतार कहे जाने वाले चरित्रों की भी पोल खोलता है, उनसे सवाल करता है और उनकी दिव्यता को, उनके अस्तित्व को कठघरे में खड़ा करता है। वह पुराणों और मिथकों में से ही ऐसे चरित्र, ऐसी घटनाएँ ढूंढ लाता है, जो गवाह हैं इस बात की, कि कमज़ोर का शोषण हर हाल में, इस काल में होता रहा है, होता रहेगा। इससे छुटकारा तभी संभव है जब हम अपनी ऑंखों से अंधविश्वास की पट्टी हटाएँ, अपने विवेक को जागृत करें, हर वर्ग का, हर व्यक्ति शिक्षित हो, ताकि सुनी-सुनाई मन-गढ़न्त बातें उसके जीवन का मार्ग निर्धारित न करें। वह अपना सत्य स्वयं खोजे, उसे जाँचे-परखे, चाहे उसे हज़ारों-लाखों बार गिरना पड़े, मुँह की खानी पड़े।
…पात्र हैं महाभारत के
एक से बढ़कर एक
लम्पट शान्तनु
कुण्ठाओं का गट्ठड़ भीष्म
भाड़े का टट्टू द्रोण
और निरीह शिशुओं का हत्यारा
उसका कुलदीपक
दूरदर्शी संजय
अंधा धृतराष्ट्र
फूट चुकी हैं जिसकी
हिय की भी!
….और पहलवान भीम
नपुंसक धनुर्धारी
और उसकी गाड़ी खींच ले जाने वाला
छलिया कृष्ण
जिसे भगवान मानने में ही ख़ैर
ये सभी
मानो चिल्ला चिल्लाकर कह रहे हों
”हम आज भी हैं
महाभारत कभी ख़त्म नहीं होता”
कवि इन मिथकों में, पुराणों में सच्चा इतिहास ढूंढता है और हताश होकर मात्र कविता में, या कल्पना में थोड़ा-बहुत सत्य बचे रह जाने से ही संतोष करता है, पर साथ ही झूठ के पुलिंदों से दूर रहने को आगाह भी करता है-
‘लाश घर’ है इतिहास
एक एल्बम है जिसमें
महलों के
षडयंत्रों के
युध्द के मैदानों के
कहाँ है प्राणवन्ता?
रंग… रूप… रस?
कहाँ हैं धड़कनें?
आहें?
वह तो भला हो कल्पना का।
वाक़ई इतिहास में ज़िक्र है राजाओं का, रानियों का, देवों का, अवतारों का, युध्दों का, पर कहाँ गई वो युध्द में हताहत हुए सैनिकों की सूची? कहाँ गई उन स्त्रियों की, बच्चों की चीखें, कहाँ गया उन लाखों-करोड़ों मनुष्यों के रक्त का हिसाब, जो कट गए किसी एक व्यक्ति के स्वार्थ के लिए,किसी एक व्यक्ति की महत्वाकांक्षा के लिए। क्यों उनके लिए नहीं चला सुदर्शन चक्रद्व क्यों उनकी रक्षा के लिए नहीं अस्त हुआ समय से पूर्व सूरजद्व क्यों नहीं शहीद हो गए मुस्कुराते हुए महानायक युध्द में-
यदि तुम चाहते तो
रुक सकता था महासमर!
तुम्हें तो मालूम था योगिराज!
विषाद ही तो है
योग के सोपान का प्रथम पायदान
आत्मग्लानि में डूबा
द्रवितमना अर्जुन
क्या ज़रूरत थी
उस सत्रह अध्याय लम्बे वाग्जाल की?
…बच सकते थे अठारह अक्षौहिणी जीवन
यदि तुम चाहते तो!
जगदीश सविता जी की कविताएँ उस समय की कविताएँ हैं जब आज़ादी के बाद लोग सकारात्मक बदलाव के सपने देख रहे थे। कविता छन्दों से निकल कर मुक्त हो रही, रोज़मर्रा की ज़िन्दगी को आम आदमी के शब्दों में कहा जा रहा था। यूँ कहें कि नई कविता की नींव पड़ रही थी, जब मुक्तिबोध को, उनकी कविताओं को बहुत बड़ा कवि वर्ग नकार रहा था और वहीं-कहीं मुक्तिबोध के लिए, उनकी कविता के लिए ज़मीन तैयार हो रही थी-
क्या दिन थे वे भी…
रोज़ तीन टांग वाले स्टोव पर
वह मेरा चाय बनाना
गली के काणे कुत्ते का
हिज़ मास्टर्स वाइस के पोज़ में
आ बैठना…
…कई एकड़ में फैली
नवाब साहब की हवेली में
खुलेगा
एक दिन ज़रूर खुलेगा
कम्यूनिस्ट पार्टी का दफ्तर
लहराएगा लाल परचम
…हाँ तो पहलवान
देना एक बीड़ी
माचिस है मेरे पास
…..क्या दिन थे!
कवि बुरे हालातों में भी एक मस्त कलन्दर की ज़िन्दगी जीता है, घोर निराशा के क्षणों में भी उम्मीद रखता है, लाल परचम लहराने की। साधनहीन खड़ा है पर बेबाक़ी से मांग सकता है, छीन सकता है साधन क्रांति के….. क्योंकि ‘माचिस है उसके पास’।
सच ही है। जगदीश सविता की कविताएँ चिंगारियाँ हैं, जो सीनों में दबे बारूदों को धमाकों में बदल सकती हैं। पर अफ़सोस कि ये कविताएँ ऐसे समय में सामने आ रही हैं जब सारी पार्टियों के चेहरे से नक़ाब उतर चुके हैं। क्रान्तियों की दिशा बदल चुकी है। युवाओं का आन्दोलन वंचितों का आन्दोलन एक अंधी हिंसक लड़ाई में तब्दील हो गया है। ऐसे मैं इन कविताओं को पूरे एहतियात के साथ, उस समय से जोड़ कर पढ़ा जाना चाहिए, जिस समय में ये लिखी गई थीं।
जगदीश सविता जी के पाँच काव्य-संग्रह हिन्दी में तथा एक काव्य संग्रह अंग्रेजी में प्रकाशनाधीन है।
-विवेक मिश्र-