सदियों पहले काटे गए पंखों का दर्द कहती हैं, सुधीर सागर की कविताएं
- विवेक मिश्र (www.vivechna.blogspot.com)
डॉ सुधीर सागर के कविता संग्रह 'बस! एक बार सोचो' की कविताएँ, एक संकटग्रस्त समाज के भीतर, निरन्तर संघर्षरत, उस वर्ग विशेष की पीड़ा को स्वर देती कविताएँ हैं, जिसे देश और समाज के एक बहुत बड़े वर्ग द्वारा न केवल नज़रअंदाज़ किया गया, बल्कि उसकी उपस्थिति और अस्तित्व को ही सिरे से नकारा जाता रहा। आज इक्कीसवीं सदी की चकाचौंध में जहाँ हर छोटा-बड़ा रास्ता हमें खींचकर बाज़ार की ओर ले जा रहा है। हर चीज़ की क़ीमत तय हो चुकी है। विचार से लेकर व्यक्ति तक, रूपहली पैकिंग में, बिकने के लिए बाज़ारों में सजे हैं। तेज़ी से बदलते इस देश में, एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी वहीं खड़ा है जहाँ सदियों पहले उसे, आँखों पर धर्म और वर्ण व्यवस्था की पट्टी बाँध कर, सदा-सदा के लिए, अंधेरे में, सड़ांध में पीढ़ी दर पीढ़ी एक अभिशप्त जीवन जीने के लिए धकेल दिया गया था - "खण्डित शिलाओं की तरह/मौजूद हैं तन-मन पर/लहुलुहान ख़रोंचें/……यह जाति कोई विशेष प्रजाति का जानवर नहीं/ये पूरी मानव जाति का/ चिंदी-चिंदी हो चुका/ एक चीथड़ा है।"
सुधीर सागर का कवि क्षद्म विकास और परिवर्तन के पीछे छुपे ढोंग को, उदारता के स्वांग को अच्छे से समझता है और उसके चेहरे से, पूरी निर्ममता के साथ, सबके सामने, उसका मुखौटा उतार फेंकता है - "सिर उठा कर/भूल मत जाना/जिसके समीप बैठे हो/……उनका अन्तःमन जल रहा है/ स्वर्ण अभिजात्य मनसिकता की तपिश से/ ……तुम्हारे जाते ही/ चारदीवारी पर रख दिया जाएगा/ घर से बाहर/ तुम्हारी चाय का/ ………जूठा कप।"
वादों-प्रतिवादों और सिद्धान्तों से बहुत दूर, सारी बौद्धिकताओं से परे, आदिवासी ज़िन्दगियों के संघर्ष की ऐसी त्रासदी को ही बयान करती है, इस संग्रह की एक कविता 'पत्थर पर बनी लक़ीर'। इस संघर्ष को देखते हुए, सबकुछ जानते हुए भी, न हम उनके लिए कुछ कर पाते हैं और न ही हम उन्हें उनके परिवेश में अपनी तरह जीने की आज़ादी ही दे पाते हैं। तमाम व्यर्थ की बहसों के निष्कर्ष में, कुछ भी ऐसा नहीं निकल पाता, जो इस 'पत्थर पर बनी लक़ीर' को मिटा सके, जो सबको एक पूरी और निश्चिन्त साँस लेने की आज़ादी दिला सके - "पत्थर पर बनी लक़ीर/मिटाए नहीं मिटती/ अमर हो जाती है लक़ीर/बनकर एक बार पत्थर पर/ ……वर्षों बाद भी यह मिलेंगी/उन इमारतों के खण्डहरों में/ जहाँ छाई होंगी वीरानियाँ/……थारू ज़िन्दगी भी एक/पत्थर पर बनी लक़ीर है।" (थारू - आदिवासी)
सुधीर अच्छी तरह जानते हैं कि किसी वर्ग के अन्तःमन पर सदियों से बने घाव जब नासूर बन जाते हैं, तो ऊपरी तौर पर महज़ कुछ नौकरियों में आरक्षण देकर, कुछ कपड़े-किताबें और वज़ीफ़े बाँटकर ……या सिर्फ़ उन्हें प्यार से हरिजन कहकर कुछ भी नहीं बदला जा सकता है। अगर कुछ बदलना है तो वह है हमारे वर्तमान समाज, प्रशासन, हमारी राजनैतिक व्यवस्था और हमारे संविधान की उस वर्ग के लिए सोच। अगर उनको कुछ देना है तो वह है उनका मनोबल, उनका सदियों पहले छीना गया आत्म सम्मान। फिर उन्हें तुम्हारे उपकार की आवश्यकता न होगी। वह स्वंय खड़े हो सकेंगे। अपनी आँखों से देख सकेंगे अपना और इस दुनिया का सच - "मैं परिंदा/ दूसरों की उड़ान देख/उड़ने की कोशिश में/गिर गया पथरीली धरा पर/क्योंकि भूल गया था/पंख काटे थे किसी ने/ सदियों पहले।"
दलितों के सदियों के शोषण का सच्चा दस्तावेज़ हैं सुधीर सागर की कविताएँ।
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