Apr 7, 2009

दिन के उजाले की कविताएँ

कृति- दिन के उजाले में (काव्य-संग्रह)
कवि- हर्षवर्धन आर्य
विधा- कविता

आज के समय में जब कोई कविता-संग्रह मुझे प्राप्त होता है तो शिल्प, भाषा, विषय को छोड़ कर ध्यान पहले कथ्य में छिपे कवि के निज अनुभवों एवं उनकी सच्चाई तथा विश्वसनीयता पर जाता है। मन अच्छी कविता से ज्यादा सच्ची कविता ढूंढता है और उसमें दर्शक का नहीं एक दृष्टा का सब देखने का प्रयास करता है।
आज महानताएँ ढोंग बनकर सामने आ रही हैं। बड़े-बड़े व्यक्तित्वों की छाया में घोटाले पल रहे हैं। नेताओं, अफ़सरों और व्यापारियों के साथ कवि और साहित्यकार भी समयानुसार मुखौटे बदल रहे हैं। ऐसे में किसी काव्य-संग्रह को पढ़कर कोई राय बनाना कठिन हो जाता है। ऐसे ही समय में कवि हर्षवर्धन आर्य का कविता संग्रह 'दिन के उजाले' में प्राप्त हुआ। हर्ष पेशे से स्वर्णकार हैं और ऐसे परिवार से आते हैं, जहाँ उन्होंने अपने पिता के जीवन संघर्ष को बहुत क़रीब से देखा। ऐसी पृष्ठभूमि से आए कवि के लिए कविता मानसिक अवकाश में लिखी गई विलास की वस्तु नहीं है, वरन् उसके जीवन का सत्य है और इसी सत्य को प्रामाणिकता देती है। हर्ष की ये पंक्तियाँ-

पसीने से तर-ब-तर
देर रात तक
ठुक-ठुक करते हैं मेरे पिता
पीटते से हैं सोना
सोना हराम कर,

कौन कहता है-
सोने में सुगन्ध नहीं होती
फैल गई है सुगन्ध हर ओर
मेरे पिता के पसीने की!

ऐसे निज अनुभव से चलकर कविता समाज के उस वंचित, दलित वर्ग की उस पीड़ा तक पहुँचती है, जहाँ यह पूरे समाज का दर्द बन जाती हैं और कविता उसी दर्द के आगे नतमस्तक हो कर खड़ी हो जाती है-

जो भूखे के लिए
बन जाता है रोटी
जल जाता है बन कर
चूल्हे की आग

झोंक देता है
लकड़ियों की जगह
अपना तन
अपने ही हाथों से

उसी को समर्पित है
यह कविता
जो महान हुई है
उसको समर्पित होकर।

हर्ष की कविता के विषय में वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु प्रभाकर जी कहते हैं- ''कोई प्रयत्न नहीं है, सब कुछ सहज भाव से शब्दों में रमा हुआ है... कवि कुछ भी भूल नहीं पाता... कवि को बचपन के चेहरे की खोज है। 'दिन के उजाले' का कवि सोने की गन्ध पहचान लेता है।''
सचमुच ही हर्ष 'गवाह है आंगन का नीम' कविता में स्मृतियों का पीछा करते हैं-

तुम्हें याद है ना
जब इसकी डाली पर लगे
बर्र-ततैयों के छत्तों को
तुमने मारा था पत्थर
और ततैया ने काट खाया था
तुम्हारे कान पर
तब तुम रोए थे इतना
जितना रोई थी माँ
बड़की दीदी के ससुराल जाने पर
लिपट कर बुआ के गले
इसी नीम के नीचे

तब दीदी भी क्या कम रोई थी
गाड़ी में बैठने के बाद भी
ढूंढती वे अठारह बसंत
जो लिपटे थे
इसी नीम की टहनियों पर
फ्रॉक के धागों
तो कभी दुपट्टे की उधड़ी
क़शीदाकारी की तरह।

हर्ष का कवि जब अपने गाँव से शहर आता है तो वह खाली हाथ नहीं आता, वह इस महानगर के लिए अपना 'बहुत जेबों वाला कुर्ता' लाता है और उसमें भर कर लाता है, वो सब कुछ जिसकी प्रचुरता में, गाँव में लिखी थी उसने सच्ची कविता-

सी दो दर्जी
बहुत जेबों वाला एक कुर्ता
कुछ जेबों में रखूंगा मैं
रंग-बिरंगे फूलों की ख़ुश्बू
और कुछ में ताज़ी हवा...

कुछ में रखूंगा
मोती जैसे स्वच्छ नीर को...

कुछ में रक्खूंगा गुनगुनी
चटकीली धूप...
फिर
फिर भर कर उसे
चल दूंगा बाँटने
शहर की
झोंपड़-पट्टी में...

सच! हर्ष के पास बहुत जेबों वाला, बड़ी-बड़ी जेबों वाला कुर्ता है, जिसे 'दिन के उजाले में' लेकर वह कविता की ख़ुशबू बिखेरने के लिए निकले हैं और उन्हें भरोसा है कि-

किरण की नन्हीं से किरच में
समाई है तीव्र सौम्य ऊर्जा
हवा के प्राण भर झोंके में
समाया है समग्र प्राण-विधान।

ऐसे ही हवा के झोंके को समाज में फूँकता है, हर्ष का कवि। एक चिंगारी देकर कुछ ऐसा अलाव जलाना चाहता है, जिसके ताप से जम चुकी चेतना पिघल सके। हर्ष के ही शब्दों में कहें तो-

एक चिनगारी
सुलगाना चाहता हूँ
ताकि धधक उठे अलाव
जिसके पास आकर
जन-जन ताप सकें आग
जिससे पिघल सके
शीत में जम चुकी
चेतना!

आख़िर में हर्ष के कवित्व के लिए उनकी चिनगारी सुलगाने और उसे हवा देने की इच्छा लिए मैं सिर्फ़ इतना ही कहूँगा- 'आमीन'!

-विवेक मिश्रा

2 comments:

Pankaj Narayan said...

विवेक जी, आपको अच्छी समीक्षा के लिए बधाई। पिछले दिनों हर्ष जी की किताब पढ़ने का मुझे भी मौका मिला। सहज और सुंदर तरीके से हमारी संवेदनाओं तक पहुंचते हैं आर्य। कहना तो बहुत चाहिए, लेकिन कतरे में समंदर खोजने वाले हर्ष के स्वभाव की तरह थोड़े से ही काम चलाता हूं।
पंकज नारायण
www.pankajnarayan.blogspot.com

प्रगति गुप्ता said...

बहुत बढ़िया समीक्षा हर्ष जी। आपको भी खूब बधाई भावपूर्ण सृजन के लिए।