डॉ॰ मधुकर गंगाधर के जीवन एवं कृतत्व पर डॉ॰ रमेश नीलकमल द्वारा संपादित पुस्तक ‘डॉ॰ मधुकर गंगाधर – संदर्भ और साधना’ उनके समकालीन कवियों, कथाकारों एवं प्रशंसकों और आलोचकों के द्वारा लिखे लेखों का संकलन है।
यह पुस्तक एक व्यक्तित्व के निर्माण की झाँकियाँ प्रस्तुत करती है, जो पाठकों को आश्चर्यजनक एवं अतिश्योक्तिपूर्ण लग सकती हैं परन्तु डॉ॰ मधुकर गंगाधर का जीवन ही ऐसा है।
इस संकलन में एक कथाकार, एक कवि, एक नाटककार तथा एक अधिकारी और एक अक्खड़ और फक्कड़ व्यक्ति से जुड़ी सच्ची कहानियाँ हैं, जो रुकना या झुकना नहीं जानता।
डॉ॰ गंगाप्रसाद विमल, डॉ॰ मधुकर गंगाधर के कहानीकार के बारे में कुछ इस तरह कहते हैं - "20वीं शताब्दी की अधिकांश लड़ाईयाँ कहानी की सरहद पर लड़ी गईं हैं। इस लड़ाई का सचेत स्वर स्वतंत्रता के बाद की कहानी में उभरता है। सचेत इसलिये कि कहानी मानवीय संस्कृति की विशाल सम्पदा का एक छोटा सा कारण है। स्वतंत्रता के बाद भारतीय परिवेश को हम समुद्र में पड़े समूह के समानार्थक रख सकते हैं। जहाँ भारतीय जनसमाज प्रजातंत्र, परसंस्कृतिकरण, बेरोज़गारी, असमानता, पूंजीवादी दवाब, साम्राज्यवादी आकांक्षाएँ और भी न जाने कितने बिंदु हैं जिनके बीच से अहर्निश गुज़रता है। ठीक ऐसे समय में कुछ नए लेखकों ने मानव संबंधों के नए आयामों का अंकन किया। इस में यशपाल, नागार्जुन, अमृतलाल नागर, मोहन राकेश, कमलेश्वर, रेणु, मार्कण्डेय, राजेन्द्र अवस्थी, मन्नु भन्डारी, विजय चौहान, निर्मल वर्मा आदि बहुत से नाम हैं। उन्ही के समान्तर अपेक्षाकृत कुछ नए युवा स्वरों में जो कुछ नाम उस समय चर्चा में रहे उन में मधुकर गंगाधर का नाम उस दृष्टान्त की तरह है, जो पीढ़ियों के चिन्तन, उनकी दृष्टि और उनके सरोकार में भिन्नता स्पष्ट करता है।"
"प्रेमचन्द की कहानी 'कफ़न' और मधुकर गंगाधर की कहानी 'ढिबरी' दो कथाकारों की दृष्टि, उनकी पक्षधरता, उनके सम्पूर्ण चिन्तन को दो ध्रुवों के रूप में स्थापित कर देती है।"
मधुकर गंगाधर का साहित्यिक व्यक्तित्व बहु आयामी है। उन्होनें कहानियों के साथ-साथ उपन्यास, नाटक, रेडियो रूपक, संस्मरण आदि भी लिखे हैं।
उनका नाटक 'भारत भाग्य विधाता' भारतीय लोकतंत्र और उसके राजनेताओं के असली चरित्र को उजागर करता है।
लेकिन इस सब के बीच उनके कवि को नहीं भूला जा सकता। उनका कवि रूमानी न होकर यथार्थवादी है।
गंगाधर और उनके दौर के कवियों ने कल्पनायें नहीं बल्कि देखा एवं भोगा हुआ यथार्थ लिखा है।
जैसे 'गाँव' शीर्षक से कविता में धूमिल का अनुभव निम्नलिखित पंक्तियों में व्यक्त हुआ है:-
"चेहरा-चेहरा डर लटका है
घर-बाहर अवसाद है,
लगता है यह गाँव नरक का
भोजपुरी अनुवाद है"
गाँव का ऐसा ही अनुभव मधुकर गंगाधर का भी है:-
"कई दिनों की भूखी, बूढ़ी गाय
कीचड़ में धँस गई है,
मेरे गाँव की गर्दन,
अंधे घड़ियाल के मुँह में,
फँस गई है।"
मधुकर गंगाधर का कवि ख़ामोश होकर सिर्फ़ यथार्थ को देखता, सहता और कविता में रहता है।
"मेरी आँखें गोलियों की तरह चमक उठी हैं
और मैं बन्दूक की तरह तन गया हूँ।
लगता है, क़ुतुब मीनार पर मनहूस कुत्ता रोता है
नक्सल वाड़ी के सिवा पूरा मुल्क सोता है।"
मधुकर गंगाधर के जीवन पर प्रकाश डालते कई लेख भी बहुत रोचक हैं, जिनमें डॉ॰ बलदेव वंशी का लेख "सांस्कृतिक, पारिस्थितिकी और मधुकर गंगाधर" एक ऐसा लेख है जो कोई अंतरंग मित्र ही लिख सकता है। 'एक शहर बनता हुआ गाँव' शीर्षक के लिखे लेख में प्रो॰ कमला प्रसाद 'बेखबर' जिस खिलन्दड़ेपन वाले आशिक़ मिज़ाज मधुकर गंगाधर को सामने रखते हैं वह उन लोगों के लिए बिल्कुल नया है जो एक अक्खड़ और सख़्त गंगाधर को जानते हैं। इस लेख में उनके जीवन के कई प्रेम-प्रसंगों का विस्तार से सिलसिलेवार कहा जाना और अंत में उनका अपनी पुरानी कार के प्रति प्रेम उनकी जीवन शैली को दर्शाता है, जिसमें वह गाँव और शहर के बीच समन्वय बिठाते रहे। बाहरी तौर पर वह एक उच्च पदस्थ अधिकारी रहे पर मन में एक गाँव सदा बसा रहा।
संकलन के बीच-बीच में उनकी कविताओं की पँक्तियाँ पढ़कर अच्छा लगता है। एक रचनाकार के रूप में, एक मित्र, पिता, पुत्र, पति एवं एक साफ़ दिल इन्सान के रूप में मधुकर गंगाधर जैसे अग्रज साहित्यकार की छवि को संपादक ने जिस प्रकार सबके सामने रखा है वह प्रशंसनीय है। आज की पीढ़ी के सामने हमारे पुराने साहित्यकारों के रचनाकर्म एवं उनके जीवन पर इस प्रकार के संकलन, बीते समय की साहित्यिक एवं सामाजिक परिस्थितियों की एक झाँकी देखने के लिये अतीत की ओर एक झरोखा खोल देते हैं, जिससे झाँकते हुए हम फिर उस समय को कुछ देर के लिए जीने लगते हैं, जब रेणु, नागार्जुन जैसे रचनाकार मधुकर जी के साथ सड़कों पर चलते, बतियाते दिखते हैं।
- विवेक मिश्र
यह पुस्तक एक व्यक्तित्व के निर्माण की झाँकियाँ प्रस्तुत करती है, जो पाठकों को आश्चर्यजनक एवं अतिश्योक्तिपूर्ण लग सकती हैं परन्तु डॉ॰ मधुकर गंगाधर का जीवन ही ऐसा है।
इस संकलन में एक कथाकार, एक कवि, एक नाटककार तथा एक अधिकारी और एक अक्खड़ और फक्कड़ व्यक्ति से जुड़ी सच्ची कहानियाँ हैं, जो रुकना या झुकना नहीं जानता।
डॉ॰ गंगाप्रसाद विमल, डॉ॰ मधुकर गंगाधर के कहानीकार के बारे में कुछ इस तरह कहते हैं - "20वीं शताब्दी की अधिकांश लड़ाईयाँ कहानी की सरहद पर लड़ी गईं हैं। इस लड़ाई का सचेत स्वर स्वतंत्रता के बाद की कहानी में उभरता है। सचेत इसलिये कि कहानी मानवीय संस्कृति की विशाल सम्पदा का एक छोटा सा कारण है। स्वतंत्रता के बाद भारतीय परिवेश को हम समुद्र में पड़े समूह के समानार्थक रख सकते हैं। जहाँ भारतीय जनसमाज प्रजातंत्र, परसंस्कृतिकरण, बेरोज़गारी, असमानता, पूंजीवादी दवाब, साम्राज्यवादी आकांक्षाएँ और भी न जाने कितने बिंदु हैं जिनके बीच से अहर्निश गुज़रता है। ठीक ऐसे समय में कुछ नए लेखकों ने मानव संबंधों के नए आयामों का अंकन किया। इस में यशपाल, नागार्जुन, अमृतलाल नागर, मोहन राकेश, कमलेश्वर, रेणु, मार्कण्डेय, राजेन्द्र अवस्थी, मन्नु भन्डारी, विजय चौहान, निर्मल वर्मा आदि बहुत से नाम हैं। उन्ही के समान्तर अपेक्षाकृत कुछ नए युवा स्वरों में जो कुछ नाम उस समय चर्चा में रहे उन में मधुकर गंगाधर का नाम उस दृष्टान्त की तरह है, जो पीढ़ियों के चिन्तन, उनकी दृष्टि और उनके सरोकार में भिन्नता स्पष्ट करता है।"
"प्रेमचन्द की कहानी 'कफ़न' और मधुकर गंगाधर की कहानी 'ढिबरी' दो कथाकारों की दृष्टि, उनकी पक्षधरता, उनके सम्पूर्ण चिन्तन को दो ध्रुवों के रूप में स्थापित कर देती है।"
मधुकर गंगाधर का साहित्यिक व्यक्तित्व बहु आयामी है। उन्होनें कहानियों के साथ-साथ उपन्यास, नाटक, रेडियो रूपक, संस्मरण आदि भी लिखे हैं।
उनका नाटक 'भारत भाग्य विधाता' भारतीय लोकतंत्र और उसके राजनेताओं के असली चरित्र को उजागर करता है।
लेकिन इस सब के बीच उनके कवि को नहीं भूला जा सकता। उनका कवि रूमानी न होकर यथार्थवादी है।
गंगाधर और उनके दौर के कवियों ने कल्पनायें नहीं बल्कि देखा एवं भोगा हुआ यथार्थ लिखा है।
जैसे 'गाँव' शीर्षक से कविता में धूमिल का अनुभव निम्नलिखित पंक्तियों में व्यक्त हुआ है:-
"चेहरा-चेहरा डर लटका है
घर-बाहर अवसाद है,
लगता है यह गाँव नरक का
भोजपुरी अनुवाद है"
गाँव का ऐसा ही अनुभव मधुकर गंगाधर का भी है:-
"कई दिनों की भूखी, बूढ़ी गाय
कीचड़ में धँस गई है,
मेरे गाँव की गर्दन,
अंधे घड़ियाल के मुँह में,
फँस गई है।"
मधुकर गंगाधर का कवि ख़ामोश होकर सिर्फ़ यथार्थ को देखता, सहता और कविता में रहता है।
"मेरी आँखें गोलियों की तरह चमक उठी हैं
और मैं बन्दूक की तरह तन गया हूँ।
लगता है, क़ुतुब मीनार पर मनहूस कुत्ता रोता है
नक्सल वाड़ी के सिवा पूरा मुल्क सोता है।"
मधुकर गंगाधर के जीवन पर प्रकाश डालते कई लेख भी बहुत रोचक हैं, जिनमें डॉ॰ बलदेव वंशी का लेख "सांस्कृतिक, पारिस्थितिकी और मधुकर गंगाधर" एक ऐसा लेख है जो कोई अंतरंग मित्र ही लिख सकता है। 'एक शहर बनता हुआ गाँव' शीर्षक के लिखे लेख में प्रो॰ कमला प्रसाद 'बेखबर' जिस खिलन्दड़ेपन वाले आशिक़ मिज़ाज मधुकर गंगाधर को सामने रखते हैं वह उन लोगों के लिए बिल्कुल नया है जो एक अक्खड़ और सख़्त गंगाधर को जानते हैं। इस लेख में उनके जीवन के कई प्रेम-प्रसंगों का विस्तार से सिलसिलेवार कहा जाना और अंत में उनका अपनी पुरानी कार के प्रति प्रेम उनकी जीवन शैली को दर्शाता है, जिसमें वह गाँव और शहर के बीच समन्वय बिठाते रहे। बाहरी तौर पर वह एक उच्च पदस्थ अधिकारी रहे पर मन में एक गाँव सदा बसा रहा।
संकलन के बीच-बीच में उनकी कविताओं की पँक्तियाँ पढ़कर अच्छा लगता है। एक रचनाकार के रूप में, एक मित्र, पिता, पुत्र, पति एवं एक साफ़ दिल इन्सान के रूप में मधुकर गंगाधर जैसे अग्रज साहित्यकार की छवि को संपादक ने जिस प्रकार सबके सामने रखा है वह प्रशंसनीय है। आज की पीढ़ी के सामने हमारे पुराने साहित्यकारों के रचनाकर्म एवं उनके जीवन पर इस प्रकार के संकलन, बीते समय की साहित्यिक एवं सामाजिक परिस्थितियों की एक झाँकी देखने के लिये अतीत की ओर एक झरोखा खोल देते हैं, जिससे झाँकते हुए हम फिर उस समय को कुछ देर के लिए जीने लगते हैं, जब रेणु, नागार्जुन जैसे रचनाकार मधुकर जी के साथ सड़कों पर चलते, बतियाते दिखते हैं।
- विवेक मिश्र
1 comment:
मधुकर जी के जीवन एवं साहित्य पर लिखित यह पुस्तक बहुत ही काम की चीज है |
कृपया इस पुस्तक (डॉ.मधुकर गंगाधर : सन्दर्भ और साधना) के प्रकाशक का पता एवं मोबाइल नंबर उपलब्ध कराने की कृपा करें |
Post a Comment